ओम तिवारी
नई दिल्ली: कहते हैं दिल्ली की कुर्सी का रास्ता बिहार और उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। 1984 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटों से खाता खोलने के 12 साल बाद 1996 में बीजेपी का ये सपना पूरा हो गया। पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार भले ही 13 दिन चली लेकिन दो साल के अंदर पार्टी सत्ता में लौटी तो 6 साल तक शासन में बनी रही। फिर दस साल के लंबे अंतराल के बाद 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चौथी बार केन्द्र में बीजेपी की सरकार बनी।
उत्तर प्रदेश की जनता ने तो दिल्ली की कमान से पहले ही पार्टी को प्रदेश में सत्ता की बागडोर दे दी। बीजेपी यहां 1991 में कुर्सी हासिल कर चुकी थी। हालांकि अयोध्या की घटना के बाद कल्याण सिंह मुख्यमंत्री की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। लेकिन 6 साल बाद पार्टी दोबारा उनके नेतृत्व में सत्ता में लौटी। और मौजूदा वक्त में भी वहां तीसरी बार, इस बार योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में, बीजेपी की सरकार कायम है।
बिहार में बीजेपी का नंबर कब आएगा
अब सवाल ये है कि बिहार में बीजेपी का नंबर कब आएगा? बिहार में सीएम पद के लिए बीजेपी को और कितना इंतजार करना पड़ेगा? इसमें कोई शक नहीं कि 2000 के 7 दिनों के कार्यकाल समेत प्रदेश में जब भी एनडीए की सरकार बनी बीजेपी को उपमुख्यमंत्री का पद मिला। लेकिन मुख्यमंत्री के पद से पार्टी अब तक वंचित रही। अब आप इसे विडंबना नहीं तो क्या कहेंगे कि राज्य चुनाव में अपने साथी दल से 31 सीटें ज्यादा जीतने के बाद भी बीजेपी सीएम पद का दावा नहीं कर सकती। खुद प्रधानमंत्री मोदी नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बने रहने का ऐलान कर सारी अटकलों पर विराम लगा चुके हैं।
110 सीटों में 43 पर जीत हासिल की
बीजेपी के इस फैसले के पीछे कोई त्याग की भावना है या नहीं इसका तो पता नहीं। लेकिन ये एक अकाट्य सत्य है कि बिहार का वोट गणित अभी बीजेपी के पक्ष में नहीं हैं। इसके बावजूद कि बीजेपी सबसे अव्वल स्ट्राइक रेट के साथ 110 सीटों पर चुनाव लड़कर 74 सीटें जीतने में कामयाब रही है। जबकि जेडीयू के 115 में से सिर्फ 43 उम्मीदवार मैदान मारने में कामयाब रहे। 2010 के मुकाबले इस बार पार्टी को 28 कम सीटें मिली। अब अंत भला तो सब भला कह कर नीतीश कुमार एक बार फिर सीएम बनने को तैयार हैं, लेकिन करारी हार के साथ राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी बनने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जमे रहना का ये हौसला सिर्फ वो ही दिखा सकते हैं।
बड़ी जीत के बाद भी बिहार में बीजेपी बेबस है। क्योंकि नीतीश कुमार के इतिहास ने पार्टी को मजबूर कर दिया है। हाथ ऐसे बंधे हैं कि पार्टी उन्हें नैतिकता का हवाला तक नहीं दे सकती है। क्योंकि बीजेपी को पता है कि जब नीतीश अंत भला तो सब भला कह रहे थे, तब उनका आशय सिर्फ एनडीए के बहुमत का आंकड़ा नहीं था, बल्कि वो ये भी सुनिश्चित कर लेना चाह रहे थे कि सीएम की कुर्सी पर खतरा बनने पर उनके पास दूसरा विकल्प मौजूद हो। आरजेडी को बीजेपी से एक ज्यादा सीट मिली तो साथ में उनका सियासी भविष्य भी सुरक्षित हो गया। अब अगर बीजेपी मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ती है तो 2015 की तरह महागठबंधन के साथ का विकल्प तो आजमाया जा सकता है। क्या पता बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए तेजस्वी यादव एक बार फिर, बाहर से ही सही, नीतीश सरकार को समर्थन देने को राजी हो जाएं।
अब ये एक ऐसा सियासी हथियार है जिसकी मौजूदगी का पता मौका आने पर ही चलता है। लेकिन जिसे नुकसान की आशंका होती है वो जोखिम नहीं लेना चाहता। महाराष्ट्र में बीजेपी अपना हाथ जला चुकी है। इसलिए बिहार में, कम से कम इस वक्त तो, बीजेपी के पास बड़ा हृदय दिखाने के अलावा कोई और चारा नहीं है। वरना मध्य प्रदेश और कर्नाटक में ‘तख्तापलट’ को अंजाम दे चुकी बीजेपी भला क्यों नीतीश कुमार के नखरे सहने को तैयार होती?
बीजेपी को पहली पारी में ही 21 सीटें हासिल हुईं
अब सवाल ये उठता है क्या बीजेपी बिहार में हमेशा जेडीयू के छोटे भाई का किरदार निभाती रहेगी? आखिर प्रदेश में पार्टी की ऐसी हालत क्यों बन गई है? इन सवालों के जवाब से पहले एक बार राज्य में पार्टी के इतिहास को समझने की कोशिश करते हैं। 1980 में बीजेपी की स्थापना के बाद इसी साल बिहार में 8वीं विधानसभा के चुनाव हुए। जनता पार्टी की सरकार को हराकर कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में लौटी और बीजेपी को पहली पारी में ही 21 सीटें हासिल हुईं। इसकी वजह ये थी कि प्रदेश में दक्षिणपंथी विचारधारा का जनाधार मौजूद था। बीजेपी की पैतृक पार्टी भारतीय जनसंघ को 1969 में 34 और 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में 25 सीटें मिली थी। 1980 की पहली पारी के बाद पार्टी अगले चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन थोड़ा फीका रहा। क्योंकि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से कांग्रेस के लिए उठी सहानुभूति की लहर का असर अगले साल हुए विधानसभा चुनाव में भी दिखा। कांग्रेस बंपर सीटों के साथ सत्ता में लौटी और बीजेपी के खाते में सिर्फ 16 सीटें आईं।
1990 में जीती 39 सीट
इसके बाद पार्टी का ग्राफ हर चुनाव में आगे बढ़ता गया। लेकिन सीटों की संख्या 50 के पार जाने में 15 साल लग गए। 1990 में जब लालू यादव की सरकार बनी तो बीजेपी ने 39 सीटों पर जीत हासिल की, फिर 1995 में ये आंकड़ा 41 तक पहुंचा और साल 2000 में 67 सीटें जीतने के बाद पार्टी ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाकर सत्ता पर काबिज होने की नाकाम कोशिश भी की। फिर जंगलराज से बिहार को मुक्ति दिलाने के वादे के साथ साल 2005 में पहली बार राज्य में एनडीए की सरकार बनी। हालांकि बीजेपी का प्रदर्शन पिछले चुनाव के मुकाबले खराब रहा, उसकी झोली में सिर्फ 55 सीटें आईं और जेडीयू 88 सीटें जीत कर बड़े भाई के रोल में रही। नीतीश कुमार सीएम और सुशील कुमार मोदी डिप्टी सीएम बने। बीजेपी इसके बाद आज तक छोटे भाई के किरदार से बाहर नहीं निकल पाई।
2010 में जेडीयू ने जीती 115 सीटें
क्योंकि अगली बार, 2010 के चुनाव में, पार्टी का आंकड़ा उछलकर 91 तक पहुंचा तो जेडीयू भी बंपर बढ़ोतरी के साथ 115 सीटें जीतने में कामयाब रही। फिर 2014 में केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बावजूद बीजेपी बिहार के सियासी गणित में पिछड़ गई। मोदी के नाम पर भड़के नीतीश कुमार अब तक दुश्मन रहे आरजेडी को गले लगा चुके थे। पार्टनरशिप टूटने का असर बीजेपी और जेडीयू दोनों पर दिखा, 2015 चुनाव में जेडीयू 115 सीटों से लुढक कर 71 पर आ गई और बीजेपी 91 से गिरकर 53 सीटों तक पहुंच गई। फिर बिहार में महागठबंधन की सरकार तो बन गई लेकिन आरजेडी का रबड़ स्टाम्प बनने का ठप्पा लगा तो नीतीश कुमार बहती नदी में वापस बीजेपी के नाव में कूद आए और एक चुनाव बाद भी बड़े भाई की भूमिका में बने हैं।
यहां गौर करने की बात ये है कि बीजेपी इस वक्त सियासी तौर अपने सबसे बेहतरीन दौर से गुजर रही है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी एक साल पहले ही धमाकेदार जीत के साथ सत्ता में लौटी है। हाल के चुनावों में जिन राज्यों में सत्ता बीजेपी के हाथ से निकल गई वहां दोबारा अपना वर्चस्व हासिल करने के लिए पार्टी बेचैन है। मध्य प्रदेश और कर्नाटक में जनता इसकी मिसाल देख चुकी है। महाराष्ट्र और राजस्थान में दांव सही बैठ जाता तो वहां भी बीजेपी सत्ता में लौटने की रणनीति बना चुकी थी। पश्चिम बंगाल में पार्टी आर या पार की लड़ाई छेड़ चुकी है। ऐसे में क्या सच में बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में रहने को तैयार है? या थोड़े से इंतजार के बाद पार्टी बिहार में बीजेपी बड़ा दांव खेलने वाली है? क्या बिहार में साल 2015 का इतिहास दोहराया जाने वाला है?
मोदी की लहर बरकरार
आपको याद होगा कि 2005 में बिहार में दो चुनाव हुए थे। एक चुनाव फरवरी के महीने में हुआ। लेकिन फैसला ना तो मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और उनके गठबंधन के पक्ष में आया, ना ही एनडीए के हक में आया। उसी साल अक्टूबर में दोबारा चुनाव हुए और ‘जंगलराज’ से निजात पाने को बेताब जनता ने एनडीए को स्पष्ट बहुमत दे दिया। इस बार भी जनादेश कुछ ऐसे ही संकेत दे रहा है। ताजा नतीजों से तीन बातें तो स्पष्ट हैं: पहला कि बिहार में मोदी लहर बरकरार है, दूसरा कि चिराग पासवान जेडीयू का वोट काटने में कामयाब रहे और जेडीयू का वोट शेयर काफी गिरा है, तीसरा कि आरजेडी के समर्थन में बिहार में कोई हवा नहीं है।
बीजेपी का इंतजार कब तक?
ऐसे में अगर बिहार में दोबारा चुनाव की नौबत आती है और बीजेपी जेडीयू से अलग होकर एनडीए के दूसरे साथियों के साथ चुनाव लड़ती है तो क्या पार्टी अपने दम पर सरकार बनाने में कामयाब हो सकती है? क्या जेडीयू के बगैर बीजेपी अपने एनडीए साथियों के साथ बिहार में बहुमत का आंकड़ा पार कर सकती है? माना जा रहा है कि बीजेपी इस वक्त इसी कश्मकश से गुजर रही है, किसी फैसले पर पहुंचने से पहले पार्टी पश्चिम बंगाल के नतीजों का इंतजार करना चाहती है। अगले साल मई में होने वाले इस चुनाव में जनादेश अगर बीजेपी का हौसला बढ़ाने वाले रहे तो पार्टी बिहार में नया दांव चल सकती है। हो सकता है तब तक पार्टी को नया दांव चलने का कोई बहाना भी हाथ लग जाए। क्योंकि बीजेपी को इतना तो मालूम है कि ‘मोदी काल’ में ही अगर पार्टी ने बिहार की सत्ता की चाबी अपने हाथ में नहीं ली, तो फिर दोबारा इस मौके के लिए उसे कई और सालों का इंतजार करना पड़ेगा।
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