- रामअचल राजभर, लालजी वर्मा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं का साथ मायावती से छूट चुका है।
- 2017 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को 40 फीसदी वोट , बसपा और सपा को करीब 22 फीसदी वोट मिले थे।
- मायावती ने पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन के लिए सतीश चंद्र मिश्रा को भेजा, यह एक बड़ा संकेत है।
नई दिल्ली। पिछले 10 साल से सत्ता से बाहर चल रही बहुजन समाज पार्टी ने 15 साल पुराने टेस्टेड फॉर्मूले को अपना लिया है। बसपा प्रमुख मायावती को उम्मीद है कि जांचे-परखे फॉर्मूले से वह दोबारा लखनऊ की गद्दी हासिल कर लेगी। फॉर्मूले की झलक भी लखनऊ में 7 सितंबर को प्रबुद्ध सम्मेलन (ब्राह्मणों को लुभाने के लिए) के आखिरी दिन दिख गई। जिसमें शंख बजते, मंत्रोच्चारण और त्रिशूल नजर आए। साफ है कि मायावती 2006-07 के उस दौर की याद दिला रही थी, जब यह नारा लगा करता था, "ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा"। बसपा उसी सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को अपना रही है, जिसकी वजह से बसपा ने उसने विधान सभा चुनावों में 403 में से 206 सीटें जीतकर पहली बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। हालांकि उसके बाद मायावती का जादू नहीं चला और उन्हें 2012 और 2017 के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा।
बदली हुई नजर आईं मायावती
लखनऊ में हुए प्रबुद्ध सम्मेलन में मायावती हर बार से जरूर बदली हुई नजर आई। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि पिछले 4 बार के कार्यकाल में उन्होंने जितने स्मारक, मूर्तियां या पार्क महापुरुषों के बनाने थे, वह बना दिए। जब आगे सरकार बनेगी तो पूरी ताकत यूपी की तस्वीर बदलने पर लगाऊंगी। इसी तरह उन्होंने कहा कि बीजेपी की सरकार के दौरान ब्राह्मणों पर जो कार्रवाई हुई उसकी जांच कराई जाएगी। वहीं जो भी अधिकारी दोषी पाए जाएंगे, उन पर एक्शन लिया जाएगा। उन्होंने ये भी कहा कि ब्राह्मणों के मान-सम्मान और सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाएगा।
ब्राह्मण+ दलित गठजोड़ कैसे करता है फायदा
उत्तर प्रदेश में करीब 22-23 फीसदी दलित हैं। जिसमें से करीब 50 फीसदी जाटव वोट हैं। यह वोट मायावती का सबसे मजबूत आधार है। इसके अलावा प्रदेश में 9-11 फीसदी ब्राह्मण हैं। मायावती इसी वोट को अपने साथ जोड़कर, वोट बैंक में बड़ा इजाफा करना चाहती है। जैसा कि 2007 में उन्हें फायदा मिला था। इसके अलावा 19 फीसदी मुस्लिम वोट में भी बड़ी सेंध लगाने की कोशिश है। साथ ही उन्होंने इस बार किसी के साथ गठबंधन नहीं करने का भी ऐलान किया है। ऐसे में इस बार वह भाजपा और सपा की चुनौती से कैसे निपटेंगी। यह देखना होगा।
लेकिन 2007 जैसे हालात नहीं
जब बहुजन समाज पार्टी ने 2007 में विधान सभा में बहुमत हासिल किया था, तो उसकी सफलता के पीछे 2002-2007 के हालात भी बहुत कुछ मददगार थे। असल में मायावाती ने 2002 में भाजपा के समर्थन में सरकार बनाई थी। लेकिन वह सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और 2003 में भाजपा-बसपा का गठबंधन टूट गया। उसके बाद मुलायम सिंह यादव ने बसपा के बागी विधायकों और कोर्ट में लंबित मामले और भाजपा के बैकडरो सहयोग के चलते चार साल तक प्रदेश में सरकार चलाई। 2007 में जब बसपा में हुई टूट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो वह मायावती के पक्ष में आया। तो उसका फायदा उन्हें 2007 के चुनावों में मिला। उन चुनावों में बसपा को 30.43 प्रतिशत वोटों के साथ 206 सीटों पर जीत मिली , वहीं सपा को 25.43 प्रतिशत वोट के साथ 97 सीटें और भाजपा को 17 फीसदी वोट के साथ 51 और कांग्रेस को 8.61 फीसदी वोट के साथ 22 सीटें मिलीं थी। लेकिन अब उस दौर के हालात नहीं हैं। 2017 में भाजपा को 40 फीसदी वोट और बसपा और सपा को करीब 22 फीसदी वोट मिले थे। इसी की वजह से भाजपा को 312 सीटें, सपा को 51 और बसपा को 19 सीटें मिली थी।
अब साथ में नहीं पुराने सिपहसालार
इसके अलावा उनके कई सिपहसालार उनका साथ छोड़ चुके हैं। रामअचल राजभर, लालजी वर्मा, इन्द्रजीत सरोज, राजबहादुर, आरके चौधरी, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, सोनेलाल पटेल, जुगुल किशोर, ब्रजेश पाठक जैसे नेताओं का साथ मायावती से छूट चुका है। इसमें से कई ऐसे नेता थे जो कांशीराम के समय आंदोलन से उनके साथ जुड़े हुए थे और मायावती के खास हुआ करते थे। इसके अलावा पिछले डेढ़ में साल में 11 नेताओं को पार्टी से उन्होंने निकाला है। ऐसे में अब मायावती के पास मजबूत नेताओं की पहले जैसी फौज नहीं है। हालांकि उन्हें दूसरी पीढ़ी के नेताओं को तैयार करने की कोशिश की है।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विवेक कुमार टाइम्स नाउ डिजिटल से कहते हैं " हार के बावजूद बसपा के वोटों की संख्या में कोई बड़ी कमी नहीं आई है। 2012 में उसे 1.96 करोड़ वोट मिले थे तो 2017 में उसे 1.92 करोड़ वोट मिले। वहीं समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन देखा जाय तो 2012 में उसे 2.10 करोड़ वोट मिले जबकि 2017 में वह घटकर 1.89 करोड़ पहुंच गया। ऐसे में दोनों पार्टियों के सामने चुनौती है। और दूसरी बात यह भी समझनी होगी कि मायावती के राजनीति करने का तरीका एक-दम अलग है। दूसरे दल उन पर आरोप लगाते हैं कि वह आंदोलन नहीं करती है। असल में दूसरे दल इस रणनीति पर काम करते हैं कि उनके कदम पर दूसरी पार्टियां रिएक्शन कर अपनी एनर्जी बर्बाद करें। मायावती इस पर काम नहीं करती है। उनका अपना वोट बैंक है। वह बूथ लेवल पर काम करने पर ज्यादा जोर देती हैं।
नई पीढ़ी में कितना दम
विवेक कुमार के अनुसार 'बसपा में जन नेता की ज्यादा जरूरत नहीं होती है, जैसे कि दूसरे दलों में जरूरत पड़ती है। स्वामी प्रसाद मौर्य गए तो राजीव मौर्य हैं, इसी तरह दूसरे नेता है। एक बात और समझनी होगी मायावती के पास महिलाओं और अपना खुद का वोट बैंक हैं।' दूसरी तरफ उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद को नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाया है। इसके अलावा सतीश चंद्र मिश्रा, कुंवर दानिश अली, आर.एस.कुशवाहा और रितेश पांडे जैसे नेताओं की दूसरी पंक्ति तैयार की है।
सतीश मिश्रा सबसे करीबी
इस समय मायावती अगर किसी पर सबसे ज्यादा भरोसा कर रही हैं तो वह सतीश चंद्र मिश्रा है। विवेक कुमार कहते हैं 'मायावती ने पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन के लिए सतीश चंद्र मिश्रा को भेजा था। यह बहुत बड़ा संकेत है।' इसके अलावा प्रबुद्ध सम्मेलन की पूरी बागडोर भी सतीश मिश्रा के ही पास थी। सतीश मिश्रा ही अयोध्या में हनुमान गढ़ी और रामलला के दर्शन, सरयू आरती में शामिल हुए। बसपा की इस नई राजनीति पर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता घनश्याम तिवारी ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से कहा 'जिन दलों को अपने नेतृत्व और अपने काम पर भरोसा नहीं है, वह भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे पर अपना राजनीतिक अभियान चलाएंगे। जिन दलों की यह निष्ठा होगी कि उत्तर प्रदेश में हर युवक को रोजगार चाहिए, हर परिवार को स्वास्थ्य की व्यवस्था चाहिए, हर शहर और गांव को बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर चाहिए, हर रोज हिंदू-मुस्लिम और दंगों की राजनीति नहीं चाहिए, वो दल जनता का समर्थन पाएंगे। और जनता ने पंचायत चुनाव में बताया है कि उसका भरोसा अखिलेश यादव के साथ है।' खैर मायावती बिना शोर-शरोबे से काम करने के लिए जानी जाती हैं। ऐसे में देखना है कि उनका यह दांव 2022 में कितना काम आएगा