- फरवरी 2021 में चमोली में ग्लेशियर फटने से आई थी तबाही, बांध निर्माण स्थल से बह गए थे सैकड़ों लोग
- केदारनाथ त्रासदी के साथ 600 मिलीमीटर हुई थी बारिश, इस बार नैनीताल में दो दिन में हो गई 400 मिलीमीटर बारिश
- चारधाम सड़क प्रोजेक्ट (ऑल वेदर रूट) के बाद इलाके में भूस्खलन के 150 नए मामले सामने आए हैं।
नई दिल्ली: देवभूमि उत्तराखंड लगातार प्राकृतिक त्रासदियों का शिकार बनता जा रहा है। एक त्रासदी की कड़वी यादें भूलती नहीं है कि दूसरी सामने आ जाती है। याद करिए 7 फरवरी 2021 का वो वायरल वीडियों जब ग्लेशियर फटने से चमोली के तपोवन में बांध के पास कई मजदूर और कर्मचारी एक छत पर अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। लेकिन थोड़ी जद्दोजहद के बाद, वे हार गए और उन्हें सैलाब लील गया। उस त्रासदी में करीब 100 लोग बह गए थे। और अब नैनीताल में दो दिन में ऐसी बारिश हुई कि उसका देश के दूसरे इलाकों से संपर्क ही कट गया। एनडीआरएफ के अनुसार बुधवार को दोपहर तक 46 लोगों की मौत हो चुकी थी। इसी तरह 2013 में आई केदारनाथ त्रासदी को कौन भूल सकता है। जब 13 जून से 17 जून के बीच हुई बारिश ने ऐसी तबाही मचाई थी, करीब 5000 लोग अकाल मौत के मुंह में समा गए थे। सवाल यहीं उठता है कि उत्तराखंड में ऐसा क्यों हो रहा है। इसे समझने के लिए प्रख्यात पर्यावरणविद अनिल जोशी और जिओलॉजिस्ट नवीन जुयाल से टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल ने बात की..
अनिल जोशी- हाल की बारिश केदारनाथ की बारिश की याद दिलाती है। क्योंकि केदारनाथ त्रासदी के समय भी कोई मानसून नहीं आया था और इस बार भी मानसून खत्म होने की घोषणा हो चुकी थी। इसके बावजूद इतनी भारी वर्षा का कारण क्या है? केदारनाथ में 600 मिमी बारिश एक साथ हुई थी। इस बार भी 2 दिन में 400 मिमी बारिश हुई । इसकी दो वजहें है, पहला कारण ग्लोबल वार्मिंग है। दूसरा स्थानीय स्तर पर विकास के नाम पर हो रहे काम हैं। हालिया आईपीसीसी की रिपोर्ट भी ऐसे खतरों का अंदेशा जता रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम पुरानी घटनाओं से सबक नहीं ले रहे हैं। दुनियाभर के लोग उत्तराखंड में पिछले एक दशक से हो रही त्रासदियों को देख रहे हैं। इनसे सबको सबक लेने की जरूरत है।
हमें समझना होगा कि भले ही हम आपदाओं को रोक नहीं पाएगे। लेकिन ऐसी तैयारियां कर सकते हैं कि दुष्परिणाम कम से कम हो। केरल में भी ऐसा ही हो रहा है। इसका मतलब है स्थान विशेष का मतलब नहीं रह गया है, अब कोई सुरक्षित नहीं है। इसलिए सबको मिलकर रास्ता तैयार करना होगा। विकास का जो रास्ता तैयार किया गया है। अगर वैसे ही चलते गए तो आने वाले समय में और दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
नवीन जुयाल-पहली वजह तो यही है जलवायु परिवर्तन का जो सिलसिला चला है। उससे पिछले एक दशक में काफी ज्यादा बारिश होने के मामले सामने आए हैं। दूसरी सबसे बड़ी वजह, हिमालय और उसकी नदियों के व्यवहार को बिना समझे हुए,तथाकथित विकास की योजनाएं चलाई जा रही हैं। खास तौर से बांधों का निर्माण और सड़कों का चौड़ीकरण हमारे लिए घातक साबित हो रहे हैं। अगर आंकड़े देखे जाए तो चारधाम प्रोजेक्ट के तहत करीब 900 किलोमीटर की सड़क चौड़ीकरण का काम 2018 में शुरू हुआ । और 2019 में इसने गति पकड़ी और 2020 आते-आते तबाही के मामले हमारे सामने बड़ी तेजी से आने लगे। अकेले चौड़ीकरण का काम शुरू होने के बाद सरकारी आंकड़ों के अनुसार, निर्माण कार्य इलाके में 150 नए भूस्खलन हुए हैं।
इसी तरह रेल की सुरंग बनाने के काम गढ़वाल क्षेत्र में हो रहा है। हाल ही में मैने पाया है कि ऋषिकेश से लेकर देव प्रयाग के बीच भू-स्खलन के मामले उन जगहों पर ज्यादा बढ़े हैं जहां पर रेलवे के लिए सुरंग बनाने का काम शुरू हुआ है। इसी तरह टनकपुर से चंपावत तक का क्षेत्र अतिसंवेदनशील है। हमने इस इलाके को समझा नहीं और अंधाधुंध रफ्तार से तथाकथित विकास के काम शुरू कर दिए। ऐसे में जब भारी बारिश होती है तो भूस्खलन से एकत्र हुए मलबे बहुत घातक बन जाते हैं।
एक बात और समझनी होगी कि जब कोई नदी गाद के साथ आगे बढ़ती है, तो उसके मार्ग अवरोधित हो जाते हैं। जिसकी वजह से छोटी-छोटी अस्थायी झीले बन जाती हैं। ऐसा इंसान के अतिक्रमण के कारण होता है। उसका खामियाजा तबाही के रुप में उठाना पड़ता है। दूसरी बात, बांध निर्माण के लिए प्लानिंग करने वाले , हिमालय की नदियों के मिजाज को नहीं समझते हैं। उन्हें समझना चाहिए हिमालय की नदियां केवल पानी नहीं बहाती है, बल्कि बड़े पैमाने पर पत्थर भी बहा कर लाती है। जिसकी भयावहता बादल फटने, झील टूटने या फिर बैराज से पानी छोड़ने में दिखती है।