- असम में विधानसभा की 126 सीटों के लिए तीन चरणों में हो रहा चुनाव
- राज्य में चाय बागन कर्मियों पर है भाजपा और कांग्रेस दोनों की नजर
- विधानसभा की 40 सीटों के चुनाव नतीजों को प्रभावित करता है यह वर्ग
नई दिल्ली : इस बार के असम चुनाव में चाय बागान कर्मी किसके साथ जाएंगे, इस पर सबकी नजर लगी हुई है। इस वोट बैंक पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस दोनों की नजर है। सर्वानंद सोनोवाल सरकार का दावा है कि उसने अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में चाय बागान में काम करने वालों की मजदूरी 80 से 85 रुपए तक बढ़ाई है तो कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया है। कुछ दिनों पहले कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी एक चाय के बाग में पहुंचीं और वहां पर मजदूरों के साथ कुछ समय गुजारा।
जाहिर है कि राज्य में चाय बागान कर्मियों की तादाद एवं चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता राजनीतिक दलों को अपनी ओर खींचती है। भाजपा मंगलवार को असम चुनाव के लिए अपना घोषणापत्र जारी करने वाली है और अपने इस 'संकल्पपत्र' में वह इस वर्ग को लुभाने के लिए घोषणाएं भी कर सकती है। असम के चुनाव में चाय बागान कर्मी क्यों महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरें, इस पर एक नजर डालते हैं-
राज्य की 40 सीटों को करते हैं प्रभावित
असम के चाय बागान में ज्यादातर यहां के आदिवासी समुदाय के लोग काम करते हैं। यहां काम करते हुए इनकी पीढ़ियां बदली हैं लेकिन इनके खुद के जीवन में अभी तक कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। सुबह सात बजे से शाम पांच बजे तक चाय बागानों में खटने वाले मजदूरों को दैनिक मजदूरी के रूप में करीब 175 रुपए मिलता है। इनकी संख्या राज्य की कुल आबादी की 17 प्रतिशत है और ये विधानसभा की 126 सीटों में से 40 के चुनाव नतीजों को प्रभावित करते हैं। यानि यह समुदाय अगर एकजुट होकर यदि किसी राजनीतिक दल के पक्ष में मतदान करता है तो उसे करीब इन सभी 40 सीटों पर जीत मिल सकती है। पूरे राज्य में 800 से ज्यादा चाय के बाग हैं। इनके अलावा असंगठित रूप से बहुत सारे छोटे चाय के बाग भी हैं।
वोट बैंक की ताकत दलों को अपनी ओर खींचती है
चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों की वोट बैंक की ताकत भाजपा और कांग्रेस दोनों को अपनी तरफ खींच कर लाई है। राज्य के दौरे पर आईं प्रियंका गांधी ने राज्य में उनकी सरकार बनने पर दैनिक मजदूरी बढ़ाकर 365 रुपए करने का वादा किया है। देश में चाय की पैदावार का आधा हिस्सा केवल असम में आता है। इन मजदूरों की जीवन गाथा का इतिहास भी पुराना है। भारत जब गुलाम था तो अंग्रेज 1860 के करीब इन लोगों को ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल से लेकर आए। आजाद भारत में इनकी दशा में मुश्किल से कोई सुधार आया है। ये आज भी पिछड़ेपन, गरीबी, खराब सेहत और अशिक्षा के शिकार हैं।
चाय बागान के मजदूरों से खुद को जोड़ते हैं पीएम
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों में चाय बागान का जिक्र करने से नहीं चूकते। वह खुद को 'चाय वाला' बताकर उनसे अपना भावनात्मक संबंध जोड़ते हैं। पीएम का दावा है कि उनसे ज्यादा चाय वाला का दर्द कोई और नहीं समझ सकता। चाय बागान कर्मियों में कांग्रेस की अच्छी पकड़ रही है लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा ने इस समुदाय के बीच अपनी पकड़ बनाई है। डिब्रूगढ़ से सांसद रामेश्वर तेजी और तेजपुर से सांसद पल्लब लोचन दास इसी समुदाय से आते हैं। तेली केंद्र सरकार में राज्य मंत्री हैं।
चाय बागान की मजदूरी अहम मुद्दा
इस बार के विधानसभा चुनाव में चाय बागान कर्मियों की मजदूरी एक बड़ा मुद्दा बन गया है। मजदूर लंबे समय से अपनी दिहाड़ी बढ़ाए जाने की मांग करते आए हैं। साल 2017 में असम की सरकार ने दैनिक मजदूरी तय करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति ने सुझाव दिया कि मजदूरों की दिहाड़ी मजदूरी 351 रुपए होनी चाहिए। अगले साल राज्य सरकार ने एक दिन की मजदूरी 137 रुपए से बढ़ाकर 167 रुपए कर दी। चुनाव के करीब आता देख सर्वानंद सोनोवाल सरकार ने पिछले महीने टी गार्डेन कर्मियों की मजदूरी बढ़ाकर 217 रुपए की। लेकिन टी गार्डेन के संघों ने इस वृद्धि को अपर्याप्त बताया है।