- 2017 की तरह इस बार भी राष्ट्रपति चुनाव में आम सहमति बनती नहीं दिख रही है
- अहमद पटेल और अमर सिंह जैसे नेताओं की कमी महसूस कर रहा है विपक्ष
- अखिलेश यादव के पास भी नहीं है मुलायम सिंह यादव वाली रणनीति
नई दिल्ली: जीतने के लिए तो सभी लड़ते हैं लेकिन हारने के लिए कौन लड़ेगा? राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के सामने यही सबसे बड़ा सवाल है। 15 जून को दिल्ली में विपक्ष की जो बैठक हुई, उससे ये तो समझ आ गया कि 2017 की तरह इस बार भी राष्ट्रपति चुनाव में आम सहमति नहीं बन पाएगी। विपक्ष भले ही अपने उम्मीदवार को जीताने की स्थिति में ना हो लेकिन वो सत्ता पक्ष के उम्मीदवार को समर्थन देगा, इसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं की जा सकती है। बुधवार की विपक्ष की बैठक में करीब-करीब सभी नेताओं की बात से इसके संकेत मिल चुके हैं कि विपक्ष अपना उम्मीदवार उतारेगा, लेकिन ये उम्मीदवार होगा कौन? इसका जवाब अभी तो विपक्ष के पास भी नहीं है।
ममता ने क्यों लिया शरद पवार का नाम ?
राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की तरकश में ऐसा कोई तीर नहीं है जो सीधे निशाने पर लगे। ऐसा कोई नाम नहीं है जिसके ऐलान से सत्ता पक्ष पर नैतिक दबाव बनाया जा सके। थक हार के विपक्ष के पास सिर्फ शरद पवार का ही एक ऐसा नाम है जिस पर दांव लगाया जा सकता है। शरद पवार के नाम पर बीजेपी सहमत हो या ना हो लेकिन विपक्ष की करीब-करीब सभी पार्टियां सहमत हो सकती हैं। ममता बनर्जी ने इसी रणनीति से शरद पवार के नाम का प्रस्ताव रखा, जिस पर बैठक में मौजूद सभी राजनीतिक दलों ने सहमति दे दी । अखिलेश यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे, उमर अब्दुल्ला समेत सभी नेताओं को ममता बनर्जी की ये रणनीति पसंद आई। सारे नेता तुरंत ही शरद पवार के नाम पर राजी भी हो गए। शरद पवार को जितनी तेजी से समर्थन मिला, उन्होंने उतनी ही तेजी से सबको धन्यवाद दिया और राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने से इनकार कर दिया ।
शरद पवार ने राष्ट्रपति पद की उम्मीदारी को मना क्यों किया ?
शरद पवार की उम्र 81 साल से थोड़ी ज्यादा है। देश की आजादी के 11 साल बाद जब शरद पवार सिर्फ 18 साल के थे तभी 1958 में उन्होंने यूथ कांग्रेस ज्वाइन कर लिया था। 1962 में वो पुणे यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे। करीब 64 साल तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद अब उनके सहयोगी उन्हें एक ऐसा चुनाव लड़ाना चाहते हैं जिसमें हार तय है। सवाल ये है कि जो व्यक्ति 3 बार महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री रहा हो, दिल्ली की अलग-अलग सरकारों में रक्षा और कृषि जैसे मंत्रालय को संभाल चुका हो। दुनिया में क्रिकेट की राजनीति का शहंशाह रह चुका हो, हर राजनीतिक दल में जिसके दोस्त हों, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद जिनकी राजनीतिक कौशल की तारीफ करते हों । वो 81 साल की उम्र में एक हारी हुई लड़ाई लड़ने के लिए मैदान में क्यों उतरेगा ? राजनीति की समझ रखने वाला कोई भी सामान्य व्यक्ति ये आसानी से समझ सकता है कि उम्र के इस पड़ाव पर शरद पवार जैसे माहिर राजनीतिक खिलाड़ी ऐसी गलती नहीं करेंगे।
विपक्ष के पास क्या विकल्प ?
विपक्ष के पास अभी तक ऐसा कोई उम्मीदवार नहीं है, जिसके नाम पर उनके बीच आपसी सहमति हो। हां, इतना जरूर है कि उन्होंने आम सहमति से विपक्ष का उम्मीदवार देने का मन बना लिया है। अगले हफ्ते इसी मुद्दे पर एक बार फिर बैठक भी होगी । मुंबई में होने वाली इस बैठक में तस्वीर साफ होने की उम्मीद है। इस बीच शरद पवार के इनकार के बाद दो नामों पर चर्चा हुई है, पहला नाम फारूख अबदुल्ला का, दूसरा नाम पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का है। फारूख अबदुल्ला के नाम पर उनके बेटे उमर अबदुल्ला ने सहमति नहीं दी है, तो वो भी रेस से बाहर हो चुके हैं। कुल मिलाकर गोपाल कृष्ण गांधी ही हैं जो विपक्ष के लिए हारी हुई लड़ाई लड़ सकते हैं।
विपक्ष और बीजेपी की रणनीति में अंतर ?
विपक्ष उम्मीदवार की तलाश में ज्यादा परेशान है जबकि बीजेपी मैजिक नंबर तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। बीजेपी की कोशिश है कि अगर तय वोटों का जुगाड़ हो जाएगा तो वो किसी को भी उम्मीदवार बनाएगी तो जीत तय है। इसलिए नाम बताने से पहले वो अपने सहयोगियों का मन टटोल रही है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इसके लिए कोशिशें शुरू कर दी हैं। राजनाथ सिंह की इस बारे में नीतीश कुमार और नवीन पटनायक से बात हो चुकी है। ममता बनर्जी, मल्लिकार्जुन खड़गे और अखिलेश यादव का भी मन टटोला जा चुका है। दूसरी ओर जेपी नड्डा पूर्वोत्तर के कई नेताओं से बात कर चुके हैं। बीजेपी और विपक्ष की तैयारी में ये भी अंतर है कि बीजेपी चुपचाप काम कर रही है, जबकि विपक्ष शोर ज्यादा कर रहा है।
'चाणक्य' की कमी से जूझ रहा है विपक्ष ?
बिहार से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करने से पहले प्रशांत किशोर अलग-अलग दलों के नेताओं से मिल रहे थे। विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि विपक्ष को एक 'चाणक्य' मिल सकता है जसकी कमी उसे लंबे समय से खल रही है। नब्बे के दशक में हरकिशन सिंह सुरजीत, इसके बाद अमर सिंह और अहमद पटेल जैसे नेता यूपीए के पास थे जो बीजेपी, एनडीए और बाकी दलों को साधने की क्षमता रखते थे लेकिन अब यूपीए के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो इस काम को आसानी से कर पाए। राष्ट्रपति चुनाव में ये साफ देखने के लिए मिल रहा है और इसका सीधा-सीधा फायदा बीजेपी को हो रहा है ।