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'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी', ऐसी थीं अंग्रेजों के दांत खट्टे कर देने वाली 'मर्दानी' झांसी की रानी

Updated Jun 18, 2021 | 06:22 IST

Rani Laxmibai death anniversary: झासी की रानी लक्ष्‍मीबाई ने किस बहादुरी के साथ अंग्रेजों के साथ मुकाबला किया, उसकी कहानी आज भी हमें जोश से भर देती है। उनकी बहादुरी से अंग्रेज भी प्रभावित हुए ब‍िना न रह सके थे।

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तस्वीर साभार:&nbspTwitter
'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी', ऐसी थीं अंग्रेजों के दांत खट्टे कर देने वाली 'मर्दानी' झांसी की रानी
मुख्य बातें
  • झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई आज ही के दिन अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हुई थीं
  • उन्‍होंने जिस बहादुरी से अंग्रेजी फौज का मुकाबला किया, वह आज भी मिसाल है
  • मातृभूमि की रक्षा के लिए उन्‍होंने जो भी किया वह लाखों लोगों की प्रेरणा का स्रोत है

Rani Laxmibai: 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी', यही वाक्‍य थे, जिसने झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई को इतिहास में अमर दिया। यह वो दौर था, जब आधुनिक भारत कई छोटी रियासतों में बंटा था और यहां ब्रिटेन की ईस्‍ट इंडिया कंपनी अपने पैर पसार रही थी। अंग्रेजी हुकूमत ने नागपुर, तंजावर, सतारा जैसी मराठी रियासतों को समाप्‍त करते हुए ब्रिटिश कंपनी का हिस्सा बना लिया था। उनकी नजर झांसी पर भी थी, जिसके लिए उन्‍होंने खूब पैंतरे अपनाए।

झांसी को ब्रिटिश कंपनी का हिस्‍सा बनाने की साजिश अंग्रेजों ने तब की थी, जब नवंबर 1853 में झांसी के राजा गंगाधर राव का निधन हो गया। तत्‍कालीन परिस्थितियों के अनुसार, झांसी को बचाए रखने के लिए वारिस की जरूरत थी। गंगाधर राव और मणिकर्णिका, जो आगे चलकर रानी लक्ष्‍मीबाई के तौर पर मशहूर हुईं, की जो औलाद हुई वह तीन महीने बाद ही चल बसी। इसके बाद गंगाधर राव की भी तबीयत खराब रहने लगी थी।

अंग्रेजों से लिया लोहा

अंग्रेजों की नजर झांसी पर थी। झांसी को बचाने के लिए गंगाधर राव और रानी लक्ष्‍मीबाई ने एक बच्‍चे 'दामोदर' को गोद लिया था। अंग्रेज, जो किसी भी तरह से झांसी को ब्रिटिश कंपनी का हिस्‍सा बनाने की साजिश में लगे थे, उन्‍होंने दामोदर को झांसी का वारिस मानने से इनकार कर दिया था। यहीं से शुरू हुई थी अंग्रेजों के साथ झांसी की रानी की असली लड़ाई।

झांसी को खत्‍म करने की साजिश लॉर्ड डलहौजी ने की थी। अंग्रेजों की हर चाल, हर साजिश से लड़ने के लिए रानी लक्ष्‍मीबाई ने सबसे पहले बैरिस्टर जॉन लैंग की सलाह मांगी थी। उन्‍होंने पहले तो बातचीत के जरिये मसला सुलझाने की कोशिश की, लेकिन जब उन्हें यकीन हो गया कि बातचीत से समाधान नहीं होगा तो उन्‍होंने अंग्रेजों के खिलाफ विभिन्‍न रियासतों को लामबंद करना शुरू किया। उन्‍होंने सबसे पहले बाणपूर के राजा मर्दान सिंह को खत लिखकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सहयोग मांगा था।

अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ी जंग

इतिहासकार बताते हैं कि यहां से किस तरह लक्ष्‍मीबाई की अंग्रेजों के साथ लड़ाई महज झांसी के लिए नहीं रह गई थी, बल्कि यह जंग विदेशी शासन को भारत से उखाड़ फेंकने के खिलाफ हो गई थी। उन्‍होंने कई राजाओं से संपर्क किया और अंग्रेजों की नीतियों के खिलाफ उन्‍हें एकजुट किया। झांसी पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिए उन्‍होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। इसके बाद तो जो भी हुआ इतिहास ही है।

ऐतिहासिक तथ्‍य बताते हैं कि अंग्रेजों के मुकाबले कम सैन्‍य क्षमता के बावजूद रानी लक्ष्‍मीबाई ने किस बहादुरी के साथ उनसे मुकाबला किया। यह भी गौर करने वाली बात है कि लक्ष्‍मीबाई जब अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए-मैदान में उतरीं तो उनकी उम्र महज 29 साल थी। छोटी सी उम्र में मातृभूमि की रक्षा के लिए उन्‍होंने जिस तरह बहादुरी और वीरता का परिचय देते हुए अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए, वह आज भी मिसाल है और करोड़ों लोगों की प्रेरणा का स्रोत भी। जंग-ए-मैदान में हालांकि वह शहीद हो गईं, लेकिन उनकी बहादुरी के कायल अंग्रेज भी रहे।

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