नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि आंखों देखा साक्ष्य बेहतर साक्ष्य होता है, जब तक कि उन पर संदेह करने के कारण नहीं हों। अदालत ने हत्या के लिए चार लोगों को मिली आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखते हुए यह टिप्पणी की। न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी की पीठ ने कहा कि जिन मामलों में चिकित्सीय साक्ष्य और मौखिक साक्ष्य के बीच काफी विरोधाभास होता है, उनमें आंखों देखे साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।
पीठ ने कहा, 'आंखों देखा साक्ष्य बेहतर साक्ष्य माना जाता है, जब तक कि उन पर संदेह करने के कारण नहीं हों। जिन मामलों में चिकित्सीय साक्ष्य और मौखिक साक्ष्य में विरोधाभास होता है और चिकित्सीय साक्ष्य सभी प्रत्यक्ष साक्ष्यों को असंभव बनाते हों और सभी प्रत्यक्ष साक्ष्यों के सच होने की संभावना से इंकार करते हों, वहां आंखों देखे साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।'
उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा दोषियों को बरी किए जाने को चुनौती देने वाली अपील पर फैसला देते हुए की। गुजरात उच्च न्यायालय ने चार लोगों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 34 (साझा मंशा), 120 बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत आजीवन कारावास की सजा और बंबई पुलिस कानून की धारा 135 (एक) के तहत 15 दिन कारावास की सजा से बरी कर दिया था, जिसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की गई थी।
अक्टूबर 2015 में मोटरसाइकिल से जाते वक्त एक व्यक्ति पर हमला किया गया था, जिसकी मौत हो गई, जबकि मोटरसाइकिल पर पीछे बैठा व्यक्ति इस मामले में अभियोजन पक्ष का गवाह है। दोषियों ने उस व्यक्ति पर लोहे की छड़, स्टील की छड़ और डंडे से हमला किया था। उन लोगों को इस आधार पर बरी कर दिया गया था कि अभियोजन पक्ष के दूसरे गवाह और दसवें गवाह के साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्यों से मेल नहीं खाते।