नई दिल्ली : देश के कई हिस्सों में विश्वविद्यालय और उनके प्रशासन केंद्र की सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार और संबंधित राज्यों की गैर-राजग सरकारों के बीच के राजनीतिक घमासान में फंसकर रह गए हैं। विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति, संबंधित राज्य सरकारों और केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के बीच टकराव का केंद्रबिंदु बन गई है। राजनीतिक प्रभाव से प्रेरित नियुक्ति, भेदभाव और उत्कृष्टता की उपेक्षा जैसी शिकायतों और आरोपों ने भी कुछ परिसरों में हलचल पैदा कर दी है, जिससे वे सियासी युद्ध मैदान में तब्दील हो गए हैं।
केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रपति ज्यादातर संस्थानों के मानद प्रमुख होते हैं। वह केंद्रीय मंत्रालय द्वारा सुझाए गए पैनल में से केंद्रीय संस्थान के प्रमुख की नियुक्ति करते हैं। वहीं, राज्यों में राज्यपाल प्रदेश सरकार द्वारा संचालित विश्वविद्यालय के कुलाधिपति होते हैं। कुछ राज्यों में राज्यपाल सीधे कुलपति या संस्थान के प्रमुख की नियुक्ति करते हैं, जबकि कुछ राज्यों में वे प्रदेश सरकार द्वारा सुझाए गए पैनल में से इन्हें चुनते हैं। अकादमिक क्षेत्र के विशेषज्ञों को डर है कि बढ़ते राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण संघर्ष और गहरा सकता है, जिससे कुलपतियों की नियुक्ति और संस्थानों की स्वायत्तता प्रभावित होना तय है।
मिरांडा हाउस की प्रोफेसर और दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद की पूर्व सदस्य आभा देव हबीब कहती हैं कि राज्य सरकारों और राज्यपाल के बीच सत्ता को लेकर खींचतान जारी है। नियुक्तियों से पहले राज्य सरकारों से कोई परामर्श नहीं किया गया है और न ही उनकी प्रतिक्रिया जानी गई है। कुलपति की नियुक्ति राजनीतिक नियुक्ति बन गई है और खींचतान लगातार बढ़ती जा रही है।
प्रोफेसर हबीब के मुताबिक सभी राज्यों में राज्यपाल के पद पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लोग काबिज हैं। वे केवल अपने करीबी लोगों को कुलपति के रूप में नियुक्त कर रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि नियुक्तियां एक विश्वविद्यालय के सांस्कृतिक माहौल का सम्मान करते हुए की जानी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। प्रोफेसर हबीब ने कहा कि अगर केंद्र सरकार राज्यों को हाशिये पर रखना जारी रखेगी तो अशांति पैदा होगी और तनातनी एवं गहरा जाएगी।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक शीर्ष अधिकारी के मुताबिक, अतीत में भी इस तरह के मुद्दे थे और अकादमिक संस्थानों को किसी भी तरह से राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होना चाहिए। अधिकारी ने कहा कि तनातनी नयी नहीं है। यह पिछली सरकारों में भी रह चुकी है। समय की मांग है कि एक तीसरा रास्ता खोजा जाए, जो सभी हितधारकों को स्वीकार्य हो और भारत की शैक्षणिक अखंडता में सुधार करे। उन्होंने कहा कि अगर हम चाहते हैं कि भारत के शैक्षणिक संस्थान वैश्विक स्तर पर अकादमिक उत्कृष्टता के लिए जाने जाएं तो हमें कुलाधिपति के रूप में मुख्यमंत्री और राज्यपालों से परे सोचने की जरूरत है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की प्रोफेसर आयशा किदवई का मानना है कि बहस इस बात को लेकर नहीं है कि राज्य सरकार या राज्यपाल को नियंत्रण दिया जाना चाहिए, बल्कि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को लेकर है। उन्होंने कहा कि वास्तविक हितधारकों-विश्वविद्यालय से जुड़े अकादमिक लोगों- को शैक्षणिक निर्णय लेने की शक्ति दी जानी चाहिए। किदवई ने कहा कि पूरे भारत में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता सबसे ज्यादा खतरे में है। मेरा मानना है कि अकादमिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। जिस राज्य सरकार को लोगों ने चुना है, उसी को नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
अकादमिक संस्थानों को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच घमासान के कुछ मामले-
पश्चिम बंगाल (जून 2022) : रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के नए कुलपति की नियुक्ति को लेकर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार के बीच टकराव हुआ।
दोनों पक्ष जुलाई 2019 में धनखड़ के राज्यपाल बनने के बाद से ही विभिन्न मुद्दों को लेकर आमने-सामने रहे हैं। धनखड़ यह सिद्ध करने की कोशिशों में जुटे हैं कि राज्य सरकार द्वारा संचावित विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होने के नाते विश्वविद्यालयों के संचालन में उनकी भूमिका उससे कहीं ज्यादा होनी चाहिए, जिसकी राज्य सरकार अपेक्षा करती है।
पश्चिम बंगाल विधानसभा ने 13 जून को राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को राज्य सरकार द्वारा संचालित सभी 31 सरकारी विश्वविद्यालयों की कुलाधिपति नियुक्त करने संबंधी विधेयक पारित किया। इसके कुछ ही दिनों बाद 30 जून को धनखड़ ने ट्वीट कर जानकारी दी कि उन्होंने एक समिति द्वारा चुने गए तीन नामों में से एक को रवींद्र भारती विश्वविद्यालय का नया कुलपति बनाने का फैसला लिया है। इस मुद्दे ने उन्हें एक बार फिर राज्य सरकार के खिलाफ खड़ा कर दिया है, जिसका वह सिर्फ नाममात्र नेतृत्व करते हैं।
धनखड़ ने भले ही कहा कि उन्होंने नियमों का पालन करते हुए तीन नामों में से एक का चयन किया है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने आरोप लगाया कि उन्होंने फैसला सार्वजनिक करने से पहले मुख्यमंत्री या शिक्षा मंत्री से परामर्श किए बिना एकतरफा तरीके से काम किया, खासतौर पर इसलिए क्योंकि विधानसभा द्वारा पारित एक विधेयक उनकी मंजूरी का इंतजार कर रहा है, जिसमें राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को कुलाधिपति के रूप में नियुक्त करने का प्रावधान है।
इससे पहले, 21 दिसंबर 2021 को धनखड़ का तृणमूल सरकार के साथ तब टकराव हुआ था, जब राज्य सरकार ने उनकी मंजूरी के बिना 24 विश्वविद्यालयों के कुलपति नियुक्त किए थे।
--केरल (दिसंबर 2021) : राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति में कथित राजनीतिक हस्तक्षेप पर नाराजगी जताते हुए केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने मुख्यमंत्री पिनराई विजयन को पत्र लिखकर विश्वविद्यालयों के अधिनियमों में संशोधन करने का आग्रह किया था, ताकि वह कुलाधिपति का पद ग्रहण कर सकें। विजयन दक्षिणी राज्य केरल में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं।
पत्र में कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए खान ने कहा था कि अगर मुख्यमंत्री खुद को विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति बनाने के लिए अधिनियमों में संशोधन करने के मकसद से एक अध्यादेश लाते हैं तो वह उस पर तुरंत दस्तखत करने को तैयार हैं। पत्र पर प्रतिक्रिया देते हुए विजयन ने कहा था कि उनकी सरकार का राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति पद लेने का कोई इरादा नहीं है और राज्यपाल खान को उस पद पर बने रहना चाहिए।
केरल के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप के राज्यपाल के दावों के मद्देनजर अपनी सरकार के रुख को स्पष्ट करते हुए विजयन ने कहा था कि न तो मौजूदा और न ही पिछली एलडीएफ सरकार ने विश्वविद्यालयों के कामकाज में अवैध रूप से दखल देने की कोशिश की है। बाद में खान ने कहा था कि वह पत्र नहीं लिखना चाहते थे और उन्हें इस विकल्प का सहारा लेना पड़ा, क्योंकि वह मुख्यमंत्री से फोन पर बात करने में ‘विफल’ रहे थे।
--तमिलनाडु (अप्रैल 2022) : नीट सहित विभिन्न मुद्दों पर राज्यपाल आरएन रवि के साथ मतभेद के बीच तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) विधानसभा में एक विधेयक लेकर आई थी, जो राज्य सरकार को विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त करने का अधिकार देता है। इस विधेयक को राज्यपाल की शक्तियों को कम करने के प्रयास के तौर पर देखा गया था।
मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तब याद दिलाया था कि पुंछी आयोग ने कुलपतियों की नियुक्ति से जुड़े मुद्दे से निपटने के दौरान केंद्र और राज्यों के संबंधों पर कहा था, यदि शीर्ष शिक्षाविद को चुनने का अधिकार राज्यपाल के पास रहता है तो शक्तियों और अधिकारों का टकराव होगा। स्टालिन ने कहा था, लोगों द्वारा चुनी गई सरकार को उसकी तरफ से संचालित विश्वविद्यालयों का कुलपति चुनने का अधिकार न मिलने के कारण समग्र विश्वविद्यालय प्रशासन में बहुत सारे मुद्दे पैदा होते हैं। यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने आगे कहा था कि पुंछी आयोग ने राज्यपाल द्वारा कुलपतियों की नियुक्ति के खिलाफ सिफारिश की थी। स्टालिन के अनुसार, आयोग ने तर्क दिया था कि इस तरह की शक्ति विवादों और आलोचनाओं का कारण बनेगी।
--राजस्थान (फरवरी 2022) : एक विश्वविद्यालय की प्रबंधन से संबंधित दो बैठकों पर रोक लगाने के राजस्थान के राज्यपाल के आदेश ने राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया था। विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने राजभवन और भाजपा पर हस्तक्षेप का आरोप लगाते हुए संस्थान के ‘जयपुर का जेएनयू’ में तब्दील होने की चेतावनी दी थी। हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति ओम थानवी ने कहा कि राज्यपाल कलराज मिश्रा का संस्थान के प्रबंधन बोर्ड (बीओएम) और सलाहकार समिति की निर्धारित बैठकों को रोकने का कदम ‘मनमाना’ था। अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के साथ जुड़े अन्य लोगों ने उनके विचारों से इत्तफाक जताया था। हालांकि, भाजपा नेताओं ने बैठकों का विरोध करते हुए आरोप लगाया था कि उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जा रहा है और विश्वविद्यालय में राष्ट्र विरोधी तत्व मौजूद हैं।
छत्तीसगढ़ (फरवरी 2022) : रायपुर स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय (आईजीकेवी) के कुलपति की नियुक्ति को लेकर छत्तीसगढ़ के राज्यपाल और राज्य की कांग्रेस सरकार में टकराव की स्थिति बनी हुई है। राज्यपाल अनुसुइया उइके ने सवाल किया था कि क्या राज्य में नियुक्तियों के लिए केवल एक समुदाय के नामों पर विचार किया जाना चाहिए, जबकि यहां की 32 फीसदी आबादी आदिवासियों और 14 फीसदी आबादी अनुसूचित जाति के लोगों की है। राज्य में बड़ी संख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी मौजूद हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पलटवार करते हुए कहा था कि राज्यपाल को इस मुद्दे पर ‘राजनीति बंद करनी चाहिए’ और लोगों की मांगों पर गौर फरमाया जाना चाहिए।
ओडिशा (2020-2022) : राज्य की बीजू जनता दल (बीजद) सरकार ने ओडिशा विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम 2020 पारित कर विश्वविद्यालयों का प्रशासन कथित तौर पर अपने हाथों में लेने का प्रयास किया था। इस अधिनियम के जरिये राज्य सरकार ने शिक्षकों की भर्ती के अलावा विश्वविद्यालयों में महत्वपूर्ण शैक्षणिक और प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति को नियंत्रित करने का अधिकार हासिल करना चाहा था।
अधिनियम को सबसे पहले उड़ीसा उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी, जिसने राज्य सरकार को अपने कानून के साथ आगे बढ़ने की अनुमति दी थी। हालांकि, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर अजीत कुमार मोहंती ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया।
शीर्ष अदालत की एक खंडपीठ ने इस साल मई में यूजीसी और प्रोफेसर मोहंती की याचिका पर सुनवाई के बाद अगले तीन महीने के लिए अधिनियम पर रोक लगा दी थी। न्यायालय ने ओडिशा सरकार से जवाब मांगा था और मामले की अगली सुनवाई के लिए दो महीने बाद की तारीख तय की थी।
महाराष्ट्र (2020) : महाराष्ट्र उच्च एवं तकनीकी शिक्षा विभाग ने महाराष्ट्र सार्वजनिक विश्वविद्यालय अधिनियम का अध्ययन करने और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रावधानों को शामिल करते हुए कानून में संशोधन का सुझाव देने के लिए सुखदेव थोराट की अध्यक्षता में एक 14-सदस्यीय समिति का गठन किया था। समिति द्वारा दिए गए सुझावों में से एक राज्य के विश्वविद्यालयों में एक प्रो-चांसलर के पद की शुरुआत करना था।
थोराट ने कहा था, इस सिफारिश के माध्यम से हम अन्य राज्यों के विपरीत राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच शक्ति संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जहां कुलपति की नियुक्ति की शक्ति पूरी तरह से राज्य सरकार के पास है। थोराट यूजीसी के अध्यक्ष रह चुके हैं।