- उत्तर प्रदेश में एक नई राजनीतिक लड़ाई शुरू हो गई है
- इस बार राजनीतिक जंग भगवान राम और परशुराम के बीच देखने को मिल रही है
- राम बनाम परशुराम युद्ध वास्तव में ब्राह्मण-ठाकुर की लड़ाई को दर्शाता है
लखनऊ: उत्तर प्रदेश के राजनीतिक अखाड़े में अब एक नई लड़ाई शुरू हो गई है। इस बार राजनीतिक जंग भगवान राम और परशुराम के बीच देखने को मिल रही है। पिछले हफ्ते राम मंदिर के भूमिपूजन ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया था, जो अब राम मंदिर का श्रेय लेने के लिए कमर कस रहे हैं। पार्टी राम मंदिर के मुद्दे को 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में भुनाने का प्रयास करेगी, क्योंकि उसने मंदिर निर्माण को लेकर लाखों हिंदुओं से वादा किया था, जिसकी आधारशिला अब रखी जा चुकी है। पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव तक इस मुद्दे को जीवित रखने का हर संभव प्रयास करेगी।
भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा, जब 2022 में विधानसभा चुनाव होंगे, तो राम मंदिर ने आकार ले लिया होगा और 2024 तक, जब लोकसभा चुनाव होंगे, तब मंदिर का उद्घाटन होगा। राम मंदिर के साथ, भाजपा एक बार फिर अपने हिंदू पहले अभियान को फिर से शुरू करने की योजना बना रही है, जो ओबीसी और दलितों को अपने पाले में लाएगी।
इसका मुकाबला करने के लिए समाजवादी पार्टी (सपा) ने पिछले महीने एक कथित पुलिस मुठभेड़ में मारे गए खूंखार अपराधी विकास दुबे के मुद्दे पर भाजपा के खिलाफ ब्राह्मणों में बढ़ती नाराजगी को भुनाने की कोशिश की है। पिछले दिनों हुई कुछ मुठभेड़ों में जो अधिकांश अपराधी मारे गए हैं, वह ब्राह्मण थे और इसी वजह से कहीं न कहीं ब्राह्मण समुदाय ने अपने आपको लक्षित और महत्वहीन महसूस किया है।
राम बनाम परशुराम युद्ध वास्तव में ब्राह्मण-ठाकुर की लड़ाई को दर्शाता है, जो दशकों से उत्तर प्रदेश की राजनीति पर हावी है। राम क्षत्रिय समुदाय से माने जाते हैं, जबकि परशुराम ब्राह्मण समुदाय से। दोनों को भगवान विष्णु का अवतार कहा जाता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी क्षत्रिय समुदाय से हैं और ब्राह्मण उनके शासन में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं।
सपा ने किया ये ऐलान
इस बीच समाजवादी पार्टी ने घोषणा की है कि वह लखनऊ में भगवान परशुराम की 108 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित करेगी और एक शैक्षिक अनुसंधान केंद्र के अलावा एक भव्य मंदिर भी बनाया जाएगा। सपा नेता अभिषेक मिश्रा ने कहा कि अभी परियोजना को अंतिम रूप दिया जा रहा है और परशुराम चेतना पीठ परियोजना की देखरेख करेगा जो कि जनसहयोग के माध्यम से पूरा होगा। उन्होंने कहा, मैं सपा का हिस्सा हूं और यह स्पष्ट है कि पार्टी परियोजना का एक हिस्सा है। दावों के विपरीत, सपा ब्राह्मण समुदाय से विमुख नहीं है। वह अखिलेश यादव सरकार थी, जिसने परशुराम जयंती पर अवकाश घोषित किया था और इसे बाद में योगी आदित्यनाथ सरकार ने रद्द कर दिया था।
मिश्रा ने कहा कि वह अखिलेश सरकार ही थी, जिसने लखनऊ में जनेश्वर मिश्र पार्क का निर्माण किया था और पार्क में ब्राह्मण नेता की बड़ी से बड़ी प्रतिमा स्थापित की थी। परशुराम एक ब्राह्मण आइकन हैं और उनकी मूर्ति को खड़ा करने का कदम स्पष्ट रूप से समाजवादी पार्टी द्वारा ब्राह्मणों को अपने पाले में कर लेने का एक प्रयास है, जिनकी आबादी उत्तर प्रदेश में लगभग 11 प्रतिशत है और वह सरकार बनवाने और गिराने में अहम भूमिका निभाते हैं।
बसपा भी नहीं पीछे
परशुराम अभियान में सपा के नेतृत्व करने के बाद, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अध्यक्ष मायावती भी पीछे नहीं रहीं। मायावती ने रविवार को घोषणा की कि जब उनकी पार्टी सत्ता में आएगी, तो वह परशुराम की बड़ी प्रतिमा स्थापित करेगी। उन्होंने कहा, अगर सपा को परशुराम की चिंता है, तो उन्हें सत्ता में रहते हुए उनकी मूर्ति स्थापित करनी चाहिए थी।
दूसरी ओर कांग्रेस ने फिलहाल ब्राह्मणों और परशुराम पर कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है, लेकिन पार्टी का एक बड़ा वर्ग एक व्हाट्सएप समूह के माध्यम से ब्राह्मणों को साधने की कोशिश जरूर कर रहा है।