- आरिफ़, मुंबई के बांद्रा इलाके में गार्ड का काम करता था और कुछ दिनों तक विदेश में भी की नौकरी करने की
- जम्मू के राजौरी ज़िले में एलओसी के पास बसे गांव में बीमार हो गए थे आरिफ के पिता
- संकटों को पार करते हुए आरिफ पहुंचा अस्पताल, सीआरपीएफ भी बनी मददगार
अनुपम श्रीवास्तव [नई दिल्ली], 31 मार्च की रात आरिफ़ की नींद उचटी-उचटी सी रही। कारण, कोई दुस्वप्न। दूर कहीं परिवार का कोई जैसे मानो किसी भारी विपदा में फंस गया हो। अगले दिन सुबह सवेरे विचलित मन से आरिफ़ ने अपने बाबूजी को गाँव में फोन लगाया। आरिफ़, मुंबई के बांद्रा इलाके में गार्ड का काम करता था और कुछ दिनों तक विदेश में नौकरी करने की कोशिश में असफल रहने के बाद मुंबई वापस आ गया था। यहाँ इसने एक हाउसिंग सोसाइटी में गार्ड के नौकरी कर ली थी। अपनी आय को और बढ़ाने के लिए वो कभी-कभी टैक्सी भी चला लेता था। आरिफ़ के परिवार में उसके बाबूजी, उसकी पत्नी और तीन बच्चे थे। ये सभी जम्मू के राजौरी ज़िले में एलओसी के पास बसे गांव, पंजग्रेन में रहते थे।
कोरोना से भारत भी नहीं रहा अछूता
कोविड 19 की महामारी ने पूरे विश्व को जकड़ रखा था। चाइना के वुहान से निकला यह कोरोना नॉवेल वायरस अप्रत्याशित तेज़ी से विश्व को अपने विध्वंसकारी आगोश में समाये जा रहा था। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जो इस महामारी के प्रकोप से बचा हुआ था। चाइना के एक तरफ यूरोप तो दूसरी तरफ अमेरिका दोनों, इसके प्रकोप से जूझने की जी जान से कोशिश कर रहे थे। लाखों की संख्या में लोग कोविड 19 की बीमारी से ग्रसित हो चुके थे और हजारों की संख्या में लोगों की मौत भी हो रही थी। इस लाइलाज बीमारी ने पूरी दुनिया में हाहाकार मचाया हुआ था। भारत भी इससे अछूता नहीं था। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और साबुन से बार-बार हाथ धोना ही इस लाइलाज बीमारी से बचाव था। पूरा विश्व लॉकडाउन मोड में चला गया था। कारोबार, उद्योग सभी आंशिक तौर पर बंद कर दिये गए थे। स्कूल, दफ्तर, कॉलेज, जिम, पार्लर, मैरेज हाल सभी पर तले लग गए थे। बसें, रेलगाड़ियाँ, मेट्रो, एरोप्लेन सभी थम गए थे। शहर के एक हिस्से से दूसरे में जाने की पाबंदी लगी हुई थी। राज्यों ने अपने बार्डर सील कर दिये थे। सारा देश थम चुका था।
आरिफ के पिता की हालत थी नाजुक
एक अप्रैल की सुबह, काफी देर फोन की घंटी बजने के बाद जब आरिफ़ के बाबूजी का फोन उठा, तो दूसरी तरफ से आयी आवाज़, आरिफ़ के बाबूजी की नहीं थी। दूसरी तरफ आरिफ़ का कोई रिश्तेदार था जो की पंजग्रेन में ही रहता था। उसने आरिफ़ को बताया कि बाबूजी की बीती रात दिमाग की नस फट गयी थी और उनकी हालत काफी नाज़ुक थी। गांव वालों से जो मदद बन सकती थी वह कर रहे थे। आरिफ़ का बुरा सपना सच हो गया था। विचलित आरिफ़ को कोई राह नहीं सूझ रही थी क्योंकि मुंबई से राजौरी करीब
लिया साइकल से 2100 किलोमीटर दूरी तय करने का निर्णय
इक्कीस सौ किलोमीटर दूर था और जाने का कोई साधन नहीं। उसने आव देखा न ताव और राजौरी जाने का निश्चय कर लिया। एक दोस्त से, अपनी 1200 रुपये की कमाई में से उसने 500 रुपयों में साइकिल खरीदी और निकल गया अपने बाबूजी से मिलने। मुंबई से बाहर निकलते वक़्त, आरिफ़ की मुलाक़ात हाईवे पर दीपेश से हुई। दीपेश लॉकडाउन में फंसे दिहाड़ी मजदूरों के लिए खाना बाँट रहा था। दीपेश को आरिफ़ का साइकिल से राजौरी जाने का विचार थोड़ा अटपटा लगा, पर आरिफ़ का निश्चय अटल था।
मंजिल पर यू बढ़ते रहा आगे
दीपेश ने आरिफ़ के 2100 किलोमीटर के सफर की बात सोशल मीडिया पर अपने दोस्तों के साथ शेयर कर दी। इस पोस्ट को कई लोगों ने देखा और अपने-अपने स्तर पर लोग आरिफ़ की मदद करने की कोशिश करने लगे। कुछ पत्रकारों ने भी इस पोस्ट को देखा और उन्होंने सीआरपीएफ़ के कुछ आला अधिकारियों से आरिफ़ के बाबू जी की मदद करने की गुहार लगाई। सीआरपीएफ़ एलओसी के इलाके में मददगार नाम का कार्यक्रम चलाता है, जिसके तहत बार्डर के दूर दराज़ इलाकों में सीआरपीएफ़ नागरिकों की मदद करती है। उन्होंने अपनी एक टीम आरिफ़ के बाबूजी की मदद के लिए रवाना कर दी।
दूसरी तरफ आरिफ मुंबई से वापी, वलसाड, नवसारी होता हुआ साइकिल से धीरे-धीरे अपनी मंज़िल की ओर बढ़ता रहा। उधर सीआरपीएफ़ की टीम आरिफ़ के बाबूजी को गाँव से राजौरी जिला अस्पताल ले कर आती है। बाऊजी की दिमाग की नस फट गयी थी, अंग्रेज़ी में इसे brain haemorrhage कहते हैं। राजौरी अस्पताल से डाक्टरों ने आरिफ के बाबूजी को जम्मू रिफ़र कर दिया। सीआरपीएफ़ ने उनको लॉकडाउन के दौरान जम्मू ले जाने का इंतजाम किया। बाबूजी के दिमाग का ऑपरेशन होना जरूरी होता जा रहा था और उसकी सबसे अच्छी व्यवस्था पीजीआई चंडीगढ़ में थी।
आरिफ़ के साइकिल से सफर के बारे में अब कुछ और लोग जानने लगे थे। कुछ आला अफ़सरानों ने अपने ऑफिसर दोस्तों को गुजरात में फोन कर आरिफ़ की मदद की दरख्वास्त की। महाराष्ट्र और गुजरात के बीचआरिफ़ ने जंगल में डरते-डरते रात बिताई। उसके मोबाइल की बैट्री भी डिस्चार्ज हो गयी थी....अगर कोई उसकी मदद करना चाहे भी तो उससे संपर्क नहीं कर सकता था।
सीआरपीएफ बनी मददगार
आरिफ़ को फोन बंद होने से पहले यह पता चल गया था कि उसके बाबूजी को डॉक्टरी मदद मिलनी शुरू हो चुकी थी, पर उसके बाबूजी अभी भी खतरे से बाहर नहीं आए थे। अगले दिन उसने एक दुकान पर लगे प्लग पॉइंट से अपना फोन चार्ज किया और आगे चल पड़ा। रास्ते में अचानक उसके फोन की घंटी बजी और उससे महराष्ट्र गुजरात बार्डर पर पुलिस से संपर्क करने के लिए कहा गया। वहाँ बार्डर के नाके से जरूरी समान का एक ट्रक निकाल रहा था, राजस्थान के लिए। पुलिस ने आरिफ़ और उसकी साइकिल को ट्रक पर चढ़वा दिया। अब आरिफ़ काफी तेज़ गति से अपने बाबूजी की ओर जा रहा था, पर रास्ता अभी भी काफी लंबा था और अनिश्चितताओं से भरा।
आरिफ़ जरूरी रसद के ट्रक में बैठा धीरे-धीरे कोटा की तरफ बढ़ रहा था। उसके मन में अभी भी अपने बाबूजी के स्वास्थ्य के बारे में बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। कोटा पहुँचने के बाद सीआरपीएफ ने एक दूसरे वाहन की व्यवस्था की जिसमें आरिफ़ और उसकी साइकिल को डाल, करीब साढ़े सात सौ किलोमीटर का सफर पुनः शुरू हुआ। दिन रात लगातार गाड़ी चलती रही। गाड़ी में बैठा आरिफ़ बस यही दुआ किए जा रहा था कि उसकी मुलाक़ात एक बार उसके पिताजी से हो जाए। सफर लंबा था। सात घंटे उसे सात साल समान लगे।
पहुंचा अपनी मंजिल
गाड़ी अब चंडीगढ़ शहर की सीमा में घुस चुकी थी। शहर के कतारबद्ध मकानों और दुकानों के बीच एक के बाद एक गोल चक्कर पार करती हुई गाड़ी अब पीजीआई चंडीगढ़ अस्पताल की तरफ बढ़ रही थी। आरिफ़ के दिल की धड़कन तेज़ हो चुकी थी। अनिश्चितता उसे अंदर ही अंदर खाये जा रही थी। क्या उसके बाबूजी ठीक होंगे? क्या उनका इलाज़ हो पाएगा? क्या वो उन्हें अपने साथ गाँव ले जा पाएगा? इन सभी सवालों के घिरे आरिफ़ की गाड़ी अब अस्पताल के दरवाजे पर थी। आरिफ़ लपक कर गाड़ी से उतर अस्पताल के गलियारों में अपने बाबूजी को ढूँढने निकल गया। पूछताछ से पता चला की उसके बाबूजी आईसीयू में भर्ती थे और उनके ऑपरेशन की तैयारियाँ चल रहीं थीं। डॉक्टरों का मानना था कि आपरेशन से ही उसके बाबूजी की जान बचाई जा सकती थी।
छह दिनों के लंबे सफ़र के बाद आरिफ़ ने सात अप्रैल को अपने बाबूजी को अस्पताल में देखा। बाबूजी अभी बेहोश थे पर उनको सामने देख आरिफ़ के बेचैन मन को थोड़ी तसल्ली मिली पर चैन नहीं। अगले दो एक दिन उसके बाबूजी के कई टेस्ट वगैरह हुए। उसके बाद अस्पताल के डॉक्टरों की टीम ने कुछ घंटे चले आपरेशन के बाद आरिफ़ को बताया कि ऑपरेशन सफल हुआ है और इंसानी तौर पर जो किया जा सकता था वो किया जा चुका है। आरिफ़ ने डॉक्टरों का शुक्रिया अदा किया और अपने पिताजी के होश में आने का इंतज़ार करने लगा। जैसे-जैसे बेहोशी की दवाओं का असर कम होने लगा, आरिफ़ के बाबूजी को होश आने लगा। चंद घंटो के इंतज़ार के बाद बाबूजी को रिकवरी रूम से कमरे में शिफ्ट कर दिया गया। वो अभी भी बेहोशी की दवाओं के असर में थे। कभी आँख खोलते फिर बंद कर लेते। बाबूजी को मूर्छा से बाहर आता देख आरिफ़ को लगा कि अब उसके बाबूजी ठीक हो जाएंगे। आरिफ़, शायद कई दिनों के बाद अब मुस्कुरा रहा था।
संकट का हुआ अंत
कुछ दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद आरिफ़ के बाबूजी को छुट्टी मिल गयी और आरिफ़, सीआरपीएफ़ की मदद से उनको लेकर वापिस राजौरी अपने घर आ गया।जिस सफर की शुरुआत एक बुरे सपने से हुई थी उस सफर का अंत ख़ुशनुमा हुआ। उम्मीद तो शायद आरिफ़ ने कभी छोड़ी ही नहीं थी और उसी उम्मीद और विश्वास ने शायद आरिफ़ को साइकिल से यह सफर करने की हिम्मत दी थी। इंसानियत और वक़्त की इस रेस में इंसानियत की जीत हुई थी। जिस तरह इस 2100 किलोमीटर के सफर में भारत एक हुआ था, एक बेटे को उसके बीमार बाप से मिलवाने, शायद वही हमारी इस विशाल और गौरवशाली सभ्यता की असलियत है और हम सभों को इस सभ्यता का हिस्सा होने पर फ़क्र होना चाहिए।
(लेखक अनुपम श्रीवास्तव टाइम्स नाउ चैनल में चीफ एक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं।)