- लोक जनशक्ति पार्टी में फूट के बाद चिराग पासवान अकेले पड़े, अब कानूनी लड़ाई
- एलजेपी के पांच सांसद पशुपति कुमार पारस के साथ, चिराग का दावा पार्टी पर कानूनी अधिकार उनका
- पांच जुलाई को दोनों धड़ों ने पटना का सड़कों पर शक्ति प्रदर्शन किया था।
राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी में घमासान मचा हुआ है कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) किसकी, बेटा चिराग पासवान की या भाई पशुपति पारस की? असली सवाल है कि क्या चिराग पासवान 'एकला चलो' के रस्ते पर चल पाएंगे? और इस सवाल को समझने के लिए पांच सवाल और जवाब जानना जरूरी होगा।
पहला, एलजेपी पार्टी क्या है ?
बिहार के कद्दावर दलित नेता राम विलास पासवान ने एलजेपी पार्टी की स्थापना साल 2000 में की थी। वैसे पासवान ने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुवात 1969 में ही बिहार विधानसभा चुनाव जीतकर कर दी थी लेकिन पासवान ने 1977 के लोकसभा चुनाव में हाजीपुर से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया था क्योंकि देश में सबसे अधिक मार्जिन से चुनाव जीतकर गिनिज बुक में वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया था। और उसके बाद पासवान ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। लेकिन 2000 में अपनी पार्टी बनाने के बाद पासवान लगातार यूपीए और एनडीए सरकारों में मंत्री रहे। पासवान अपना ही नहीं बल्कि अपने भाइयों को भी अपनी पार्टी में स्थापित किया। साथ ही पासवान दलितों के नेता जरूर थे लेकिन वह अपनी पार्टी में उच्च और अन्य जातियों को भी तरजीह देते रहे। इसी का परिणाम था कि पासवान बिहार में काफी लोकप्रिय नेता बन गए। उनके व्यक्गित सम्बन्ध भी सभी दलों के नेता से भी सौहार्दपूर्ण रहे। कहने में कोई हर्ज नहीं कि एक दलित परिवार से उठकर पासवान देश के दिग्गज नेता गए। लेकिन अक्टूबर 2020 में पासवान की मृत्यु हो गयी।
दूसरा, पारिवारिक कलह का कारण क्या है ?
चूंकि एलजेपी पारिवारिक पार्टी है तो इसीलिए राम विलास पासवान ने अपने रहते ही अपने पुत्र चिराग पासवान को पार्टी की कुंजी सौंप दी और 2014 लोकसभा के समय से ही चिराग ही पार्टी के सारे निर्णय लेते रहे हैं। कहा जाता है कि 2014 लोकसभा चुनाव से पूर्व एलजेपी का एनडीए में शामिल होने का निर्णय राम विलास पासवान ने नहीं बल्कि चिराग ने लिया था और परिणाम भी काफी अच्छा रहा और बिहार में एलजेपी ने मोदी लहर में सात में से छह लोक सभा सीटें जीत ली। राम विलास पासवान मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री बन गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी एलजेपी ने 6 सीटें जीतीं और राम विलास पासवान फिर मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री बन गए।
चिराग पासवान के सिक्के 2014 और 2019 दोनों लोकसभा चुनावों में चले लेकिन समस्या की शुरुवात हुई 2020 के विधानसभा चुनाव में। चिराग केंद्र में मोदी सरकार के साथ रहे लेकिन बिहार के विधानसभा में राज्य में एनडीए से बाहर होकर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया। अलग होने का कारण बीजेपी नहीं बल्कि जेडीयू थी क्योंकि चिराग पासवान ने जेडीयू नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से रार ठान ली और नीतीश कुमार को अपना राजनीतिक शत्रु बना लिया। अकेले 134 उम्मीदवारों के साथ चुनावी मैदान में कूद पड़े और खूब जमकर प्रचार किया। हालांकि इस चुनाव में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा। विस चुनाव में चिराग केवल एक उम्मीदवार जीता पाए। हां ये जरूर हुआ कि एलजेपी की वजह से जेडीयू को तक़रीबन 30 सीटों का नुकसान हुआ और जेडीयू बन गयी बिहार की तीसरे नंबर की पार्टी। यानी चिराग पासवान और नीतीश कुमार के बीच छत्तीस का आंकड़ा शुरू हो गया।
इसी साल जून के महीने में चिराग पासवान के चाचा पशुपति कुमार पारस ने छह लोक सभा एमपी में से पांच को अपने साथ करके चिराग के खिलाफ विद्रोह कर दिया। बल्कि पशुपति पारस ने लोकसभा स्पीकर को चिठ्ठी दे डाली कि असली एलजेपी वही हैं और लोकसभा स्पीकर ने संख्या देखते हुए उनको असली एलजेपी का दर्जा भी दे दिया। इस प्रकार पशुपति पारस ने अपने को पार्टी का संसदीय नेता और महबूब कैसर अली को उपनेता घोषित कर दिया। अब बारी थी चिराग पासवान की। हालाँकि शुरुवाती दौर में चिराग ने अपने चाचा पशुपति पारस को मानाने का काफी प्रयास किया लेकिन बात बनी नहीं। उसके बाद चिराग पासवान ने भी अपने को ही असली एलजेपी नेता घोषित किया।
अब बात आती है हाजीपुर की। हालांकि फिलहाल हाजीपुर से लोकसभा एमपी हैं पशुपति पारस लेकिन हाजीपुर और राम विलास पासवान एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। इसीलिए चिराग पासवान ने राम विलास पासवान के जन्म दिन जुलाई 5 को हाजीपुर से ही 'आशीर्वाद यात्रा ' की शुरुआत की। चिराग का कहना है कि वो पूरे बिहार में 'आशीर्वाद यात्रा ' करेंगे और लोगों से पूछेंगे कि राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी का असली वारिस कौन है: चिराग या पशुपति?
तीसरा, राम विलास पासवान का असली वारिस कौन है?
इसके भी कई कारण दिए जा रहे हैं। पहला, राम विलास पासवान का कोर कांस्टीटूएंसी 'पासवान ' चिराग पासवान को ही असली वारिस मानेगा न कि पशुपति पारस को। दूसरा , 'पासवान समाज' राम विलास पासवान को वर्षों से अपना नेता समझता रहा है और पासवान ने जीते जी ही पुत्र चिराग पासवान को अपना वारिस बना दिया था फिर विवाद क्यों? तीसरा, राम विलास पासवान की मृत्यु के बाद पशुपति पारस ने अपने ही भतीजे के खिलाफ विद्रोह कर दिया जिसे विश्वासघात माना जा रहा है। चौथा, ये भी माना जा रहा है कि पशुपति पारस ने जेडीयू के कहने पर ही ये विश्वासघात किया है जिससे पासवान समाज बहुत नाराज सा लग रहा है। पांचवां इन्हीं सब कारणों की वजह से कहा जा रहा है कि 'पासवान समाज' चिराग को ही सहानुभूति के साथ अपना नेता मानेगा न कि पशुपति को। इसलिए कहा जा सकता है कि राम विलास पासवान का असली वारिस चिराग पासवान ही रहेगा न कि पशुपति पारस।
चौथा, चिराग के सामने विकल्प क्या है ?
अब है असली सवाल कि चिराग पासवान के सामने विकल्प क्या हैं? चिराग पासवान के सामने दो विकल्प हैं पहला, एलजेपी। अपने को असली एलजेपी साबित करना होगा। इसके लिए चिराग को पूरे बिहार में अपना जनाधार दिखाना होगा। इसी के बाद तय होगा कि एनडीए में असली एलजेपी चिराग हैं या पशुपति। दूसरा, तेजस्वी यादव के साथ हाथ मिलाना। क्योंकि आरजेडी का कोर कांस्टिट्यूंसी है 'एमवाई' यानी एम फॉर मुस्लिम और वाई फॉर यादव। इस दो से आरजेडी का दाल गाल नहीं रहा है ऐसी स्थिति में यदि चिराग पासवान आरजेडी के साथ हो जाते हैं तो छह प्रतिशत पासवान वोट भी जुड़ जायेगा और आरजेडी का सत्ता में आना तय हो जायेगा। लेकिन सवाल है कि क्या चिराग पासवान ऐसा करेंगे। इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में छिपा है।
पांचवां, क्या चिराग पासवान 'एकला चलो' के रास्ते पर चल पाएंगे?
ये बड़ा ही अहम सवाल है। इसके लिए चिराग पासवान को उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और आंध्र प्रदेश के वाइआरसीपी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी की राजनीतिक यात्रा को समझना होगा।अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव 2012 से पहले पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी साइकिल पर चढ़कर चप्पा चप्पा छान मारा था और परिणाम ये हुआ कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने पूर्ण बहुमत के साथ विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बनाई।
दूसरा, जगनमोहन रेड्डी के पिता और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस आर रेड्डी का हेलीकाप्टर दुर्घटना में देहांत हो गया उसके बाद जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस पार्टी अपनी जगह मांगने लगे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें दुत्कार दिया और परिणाम ये हुआ कि जगनमोहन रेड्डी ने अपने पिता के नाम पर नई वाईएसआरसीपी पार्टी बना ली। उसके बाद जगन ने भी पूरे आंध्र प्रदेश को छान मारा। बस यात्रा से लेकर पदयात्रा कर डाली और इस यात्रा में उनकी माँ और बहन भी शामिल थीं। परिणाम सबके सामने है कि 2019 के विधानसभा चुनाव में जगनमोहन रेड्डी भारी बहुमत से चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बन गए और कांग्रेस का पूरी तरह से सफाया हो गया।
अंत में ये दो उदहारण ऐसे हैं जिनसे चिराग पासवान को सीख लेनी चाहिए और अपनी राकनीतिक यात्रा पूरे जोर शोर से जारी रखनी चाहिए क्योंकि चिराग युवा हैं और चुनाव आने में अभी काफी समय है यानी अगला लोक सभा चुनाव होगा 2024 में और बिहार विधान सभा चुनाव होगा 2025 में। इसलिए मेरा मानना है कि यदि चिराग पासवान 'एकला चलो' के रास्ते पर चलते हैं तो उनकी सफलता की संभावना प्रबल होगी वैसे राजनीति में अनुमान लगाना बड़ा ही मुश्किल होगा।