Times Now Navbharat Opinion India Ka: ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीताने वाले नीरज चोपड़ा का ये गोल्डन जैवलिन अब बिकने को तैयार है। इसकी कीमत रखी गई थी एक करोड़ रुपए, जबकि पहले ही दिन इसकी बोली डेढ़ करोड़ रुपए पार कर चुकी है। वैसे, कोई बड़ी बात नहीं कि ये भाला उससे कहीं ज्यादा रकम में खरीदा जाए। इसी तरह पैरालिंपिक खेलों में सिल्वर मेडल जीतने वाले नोएडा के DM सुहास ने प्रधानमंत्री को जो बैडमिंटन रैकेट उपहार में दिया था, उसकी भी बोली 10 करोड़ रुपए लग चुकी है। बॉक्सर लवलीना बोरगोहेने के ग्लव्स की बोली भी 2 करोड़ लाख के पार हो चुकी है।
ये शुरुआत भर है। पीएम मोदी को मिले ये तोहफे करोड़ों में बिक सकते हैं। दरअसल पीएम मोदी के 71वें जन्मदिन के मौके पर मिनिस्ट्री ऑफ कल्चर PM को मिले उपहारों का ऑनलाइन ऑक्शन कर रही है। ऑनलाइन ऑक्शन 17 सितंबर से 7 अक्टूबर तक चलेगा। इस ऑक्शन में करीब 1300 आइटम होंगे। इन गिफ्ट्स में CM योगी आदित्यनाथ का दिया गया अयोध्या राम मंदिर का मॉडल भी शामिल है। राम मंदिर मॉडल का बेस प्राइस 10 लाख रुपए है। पीएम मोदी को मिले इन उपहारों की ऑनलाइन नीलामी से सरकार को करोड़ों रुपए मिलेंगे। ये रकम नमामि गंगे मिशन के लिए दान की जाएगी।
ये पहली बार नहीं है जब पीएम मोदी को मिले उपहारों की नीलामी हो रही हो। 2019 में प्रधानमंत्री मोदी को पहली सरकार में जो उपहार और स्मृति चिन्ह मिले थे, उसकी भी नीलामी हुई थी। सरकार को 15 करोड़ 13 लाख रुपए मिले थे। इस रकम को भी नमामि गंगे मिशन को दान की गई थी। सवाल ये है कि क्या देश में मोदी से पहले क्या देश में किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा किया। दिसंबर 2019 में तब के संस्कृति और पर्यटन मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने एक प्रश्न के लिखित उत्तर में राज्यसभा को जानकारी दी थी कि प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय के पास उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार वर्ष 2014 से पहले आयोजित नीलामियों का कोई विवरण नहीं मिला है।
कब कैसा रहा है देश में बेरोजगारी का हाल?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्याओं में एक है। कोविड के बाद तो हालात बिगड़े ही हैं और आंकड़े कहते हैं कि इस वक्त देश में बेरोजगारी 7.5 फीसदी के करीब है, जो बीते कई साल में सबसे ज्यादा है। जाहिर है मुद्दा है। ऐसे में कांग्रेस ने आज पीएम मोदी के जन्मदिन के मौके पर राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस हैशटेग ट्रेंड कराया। सोशल मीडिया पर विरोधियों ने आज बेरोजगारी को लेकर लाखों ट्वीट किए। कई हैशटैग ट्रेंड किए और विरोध करते करते कांग्रेसी नेता ये भी कह गए कि चाचा नेहरू का जन्मदिन चिल्ड्रन्स डे के रूप में मनाया जाता है और पीएम मोदी का जन्मदिन राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस पर।
बेरोजगारी संकट है, इसमें शक नहीं। लेकिन, सवाल है कि ये संकट क्या चार-छह साल में पैदा हुआ है? प्रधानमंत्री नेहरू के दौर में 1956 से 1972 तक बेरोजगारी दर 2.6 फीसदी से बढ़कर 3.8 हो गई थी। हालांकि इस बीच नेहरू जी का निधन 1967 में हो गया था। इंदिरा गांधी का दौर आते-आते में बेरोजगारी का हाल क्या था। अब ये समझ लीजिए। 1973-74 का आर्थिक सर्वे में बेरोजगारी की ऊंची दर पर कहा गया।
'एंप्लॉयमेंट एक्सचेंजों के लाइव रजिस्टर के मुताबिक नौकरी ढूंढने वालों की संख्या जून, 1972 के अंत तक 56.88 लाख थी, जो जून, 1973 में 75.96 लाख हो गई थी। यह सालभर में 33.5 पर्सेंट की बढ़ोतरी है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या जून, 1973 तक के एक साल में 26.11 लाख से बढ़कर 35.29 लाख हो गई (यह 35 पर्सेंट की बढ़ोतरी है)। सर्वे में यह भी लिखा गया था, 'आर्थिक विकास से पर्याप्त संख्या में रोजगार के मौके नहीं बन रहे, जो हमारी सबसे बड़ी चिंता है. पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या इस साल तेजी से बढ़ी है। इसका हमें खासतौर पर अफसोस है, क्योंकि उनकी शिक्षा पर जो पैसा खर्च किया गया है, यह उसकी भी बर्बादी है।'
बेरोजगारी पर क्या कहते हैं आंकड़े?
बेरोजगारी की समस्या से निपटना कभी आसान नहीं रहा। एनएसएसओ के आंकडो़ं की मानें तो 1977 में बेरोजगारी दर 9 फीसदी तक चली गई थी, जो नरसिंह राव सरकार में 1993-94 में 5.1 फीसदी थी। अटल सरकार में औसतन 5.1 फीसदी रही, जबकि मनमोहन सरकार में 2011-12 में औसतन 4.1 फीसदी रही। इसके बाद बेरोजगारी नापने का तरीका कुछ बदला। पैरामीटर कुछ बदले। लेकिन मसला सिर्फ आंकड़ों का नहीं है। मसला-बेरोजगारी के मुद्दे को गंभीरता से लेने का है। और सच यही है कि किसी सरकार ने इस मुद्दे को उतनी गंभीरता से नहीं लिया, जितना लिया जाना चाहिए।
कोविड के दौर में तो हाल खराब हुए ही हैं। पूरी दुनिया में। आलम ये है कि कोविड के दौरान अमेरिका में बेरोजगारी भत्ता मांगने वालों की साप्ताहिक संख्या 8 लाख 61 हजार पार कर गई थी, जो सात लाख से से ऊपर नहीं गई थी। यहां तक कि 2008-2009 के ग्रेट रिसेशन के दौरान भी इसमें कभी इतनी बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी। बेरोजगारी को लेकर पॉलिटिकिल पार्टियां कितनी गंभीर हैं...उन्होंने बेरोजगारों के दर्द से कितना फर्क पड़ता है...क्या देश में बेरोजगारी के मुद्दे पर सिर्फ पॉलकिटिक्स होती है, हमने इस मसले पर देश के युवाओं का ओपिनियन भी लिया।
क्या बेरोजगारी का मुद्दा राजनीतिक पार्टियों के लिए महज चुनावी मुद्दा बनकर रह गया है? क्या ये वोट खींचने का एक साधन बन गया? जानिये क्या कहते हैं इस पर विशेषज्ञ? देखिये टाइम्स नाउ नवभारत पर ओपिनियन इंडिया का।