- ओवैसी को लोग वोट कटुआ की भूमिका में देख रहे हैं
- थर्ड फ्रंट में शामिल होकर बिहार की राजनीति में पहले पायदान पर पहुंचने का सपना
- ओवैसी के बिहार रण में कूदने से न जाने कितनों का खेल बिगड़ेगा
नई दिल्ली: सालभर पहले किशनगंज विधानसभा के उपचुनाव की जीत क्या इतनी कारगर है कि असदुद्दीन ओवैसी उसी के बल पर आज विधानसभा चुनाव में हुंकार भर रहे हैं, या फिर इसके पीछे है कोई और कारण। वैसे तो डूबते को तिनके का सहारा और आशा की एक किरण भी काफी है किसी के लिए, लेकिन बिहार के महासंग्राम में कूदना इन सब से हटकर है। हैदराबाद में अपना सिक्का जमाने वाले और अपनी हुकूमत चलाने वाले AIMIM के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी वैसी आखिर किस बड़े लक्ष्य को भेदने के लिए बिहार विधान सभा चुनाव में कूदे हैं।
उत्तर के मुस्लिमों को साधने की तैयारी
हैदराबाद में अपना परचम लहराने वाली पार्टी का मनोबल इतना भी बड़ा नहीं हो सकता कि वो बिहार विधान सभा चुनाव में जीत की आस लेकर चुनावी दंगल में कूदे। लेकिन ओवैसी के दिमाग में ऐसा क्या चल रहा है कि वो सीधे बिहार की राजनीति में चुनाव लड़ने के लिए उतर गए। उत्तर भारत में आज भी जातिगत मतदान का चलन है. इसका अर्थ ये है कि जो जिस जाति का है, उसी जाति के उम्मीदवार को अपना कीमती वोट देता है। इस समय बिहार में NDA गठबंधन से LJP भी निकल गई है। महागठबंधन की स्थिति भी हिलती-डुलती दिख रही है, ऐसे में मुस्लिम वोटरों का भरोसा जीतने और उन्हें एकजुट करने की ओवैसी की मंशा साफ दिख रही है।
2020 चुनाव में किसका बिगड़ेगा खेल
चुनावी परदे पर देखें तो ओवैसी किसी के सगे नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि वो बीजेपी की हिंदुत्ववादी नीति से परेशान हैं तो कांग्रेस के हाथ का सहारा ले लें। ओवैसी सबसे अलग चलते हैं, शायद यही कारण है कि ओवैसी की चाल के कदमों को नापना किसी के बस की बात नहीं। ओवैसी किसी के सगे नहीं। इस समय बिहार की राजनीति बिखरी हुई सी दिखती है. लालू जेल में हैं और NDA में भी फूट पड़ गई है। इतना तो तय है कि ओवैसी भलीभांति बिहार के चुनावी दंगल की थियरी पढ़ चुके हैं। उन्हें एहसास हो चुका है कि इससे बेहतर समय और कोई नहीं जब उत्तर भारत में अपनी पैठ जमाई जा सके। ओवैसी के बिहार रण में कूदने से हो सकता है कि ओवैसी को बहुत फायदा न मिले, लेकिन इतना तो तय है कि वो कइयों का खेल अवश्य बिगाड़ देंगें।
कहीं वोट कटुआ की भूमिका में तो नहीं
इस बार बिहार चुनाव में मुस्लिम वोटर्स को लेकर हर पार्टी सजग है। किसी को अंदाजा नहीं लग पा रहा है कि ये समुदाय किसकी झोली भरेगा। महागठबंधन को एहसास तो है, लेकिन भरोसा नहीं है कि इस बार भी सच में ये वर्ग उनके लिए खुलकर सामने आएगा, क्योंकि मरने से कुछ महीने पहले स्वर्गीय केन्द्रीय मंत्री राम विलास पासवान भी मुस्लिम वोटर्स का कार्ड खेल चुके हैं। NDA से अलग होने के बाद उनकी पार्टी ने भी यूं ही सही, मगर इस वर्ग को मापने का प्रयास किया। इस चुनाव में वोट बंटे हुए नजर आ रहे हैं, ऐसे में ओवैसी का इस दंगल में कूदने का मतलब साफ है कि वो वोट कटुआ की भूमिका में होंगे।
हैदराबाद की चमचमाती सड़कों पर महंगी कार दौड़ाने वाले ओवैसी को अभी बिहार के धूलभरे और उबड़-खाबड़ रास्ते की पहचान करनी बाकी है। यहां खादी जबतक माटी से नहीं मिलती तबतक नेता का भविष्य नहीं बनता। नेता की खादी जब माटी रुपी रेह में मिलती है, तो ही उसमें चमक आती है।