- सुधाकर ने आंखों की रोशनी जाने के बाद भी नहीं हारी हिम्मत
- 46 वर्षों से बिना किसी मदद चला रहे हैं अपनी दुकान
आंखों की रोशनी खो चुके सुधाकर कुरुप पिछले 46 सालों से केरल के पथानमथिट्टा जिले में स्टेशनरी की दुकान चला रहे हैं। वह इसे बिना किसी की मदद मैनेज करते हैं। स्टोर खोलने, ग्राहकों के साथ बातचीत करने और लेन-देने का ध्यान रखने से लेकर इसे व्यवस्थित रखने तक हर चीज 69 साल के सुधाकर सबकुछ खुद ही करते हैं।
'द बेटर इंडिया' की खबर के अनुसार, सुधाकर ने बताया, '14 साल की उम्र में मुझे एहसास हुआ कि मैं धीरे-धीरे अपनी दृष्टि खो रहा हूं। बावजूद मैं वह सब कुछ करता हूं जो दृष्टि वाले लोग करते हैं। जब मैं पढ़ाई कर रहा था, तब एक ऐसा दौर आया जब मैंने यह देखना शुरू कर दिया कि मेरा आसपास हर सुबह थोड़ा धुंधला सा लगता था। मैंने दूर से वस्तुओं को देखने में कठिनाई का सामना करना शुरू कर दिया। जब तक मैं 21 साल का हो गया, तब तक ग्लूकोमा के कारण मैंने अपनी दृष्टि पूरी तरह खो दी।'
संघर्ष कर की शुरुआत
सुधाकर को उनकी आंखों के इलाज के लिए तिरुवनंतपुरम के अस्पताल में लगभग तीन महीने तक भर्ती रखा गया था। हालांकि, डॉक्टर ने उनके परिवार को बताया कि अगर ट्रांसप्लांट भी किया गया तब भी वह नहीं देख पाएंगे। आंखों के बिना वो सामान्य जीवन में कठिनाई का सामना कर रहे थे, लेकिन उन्होंने संघर्ष करना जारी रखा। उन्होंने तय किया कि वो अपने परिवार के सदस्यों को निराश नहीं करेंगे। धीरे-धीरे परिवार की मदद से सुधाकर ने अपने नए जीवन को समायोजित करना शुरू कर दिया।
नोटबंदी के टाइम पर हुई दिक्कत
उन्होंने बताया, 'मेरे पिता ने 22 साल की उम्र में मेरे घर के पास एक दो कमरे की दुकान खोलने में मेरी मदद की। मैं पिछले 46 वर्षों से एक ही स्थान पर उत्पादों को रख रहा हूं। भले ही मैं अपनी आंखों से नहीं देख पा रहा हूं, मेरा आंतरिक मन सब कुछ देखता है और याद करता है।' वह कहते हैं कि 2016 में केवल नोटबंदी के समय उन्हें समस्या का सामना करना पड़ा था। नए नोटों की लंबाई और चौड़ाई जानने में उन्हें लगभग एक सप्ताह का समय लगा।