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पति के जिंदा रहते हुए भी 'विधवा' का जीवन जीते हैं ये महिलाएं, नहीं लगाती हैं सिंदूर 

UP : Bizare tradition of married women of Cachwaha community in Deoria
Updated Jan 14, 2021 | 15:17 IST

गछवाहा समुदाय में यह परंपरा कब से से चली आ रही है, इसके बारे में अभी तक कोई ठोक जानकारी नहीं है। लेकिन समुदाय के बुजुर्ग लोग बताते हैं कि ये अपने पूर्वजों से इस परंपरा के बारे में सुनते आए हैं।

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UP : Bizare tradition of married women of Cachwaha community in DeoriaUP : Bizare tradition of married women of Cachwaha community in Deoria
पति के जिंदा रहते हुए भी 'विधवा' का जीवन जीते हैं ये महिलाएं।

Gachwaha community : भारत विविधताओं से भरा देश है। यहां धार्मिक परंपराएं, रीति रिवाज और तरह-तरह के कर्मकांड मिलते हैं। देश में कुछ अजीबो-गरीब परंपराएं सदियों से चली आ रही है। इन्हीं में से एक है गछवाहा समुदाय की परंपरा। गछवाहा समुदाय की औरतें अपने पति के जिंदा होते हुए भी कुछ महीनों के लिए विधवा महिलाओं जैसा जीवन-यापन करती हैं। इस समुदाय में यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। दरअसल, समुदाय की महिलाएं पति के लंबे जीवन और सलामती के लिए विधवा बनकर रहती हैं। 

ताड़ के पेड़ों से 'ताड़ी' उतारता है यह समुदाय
गछवाहा समुदाय राज्य के देवरिया, गोरखपुर और कुशीनगर जिलों में पाया जाता है। यह समुदाय ताड़ के पेड़ों से 'ताड़ी' उतारने का काम करता है। ताड़े के पेड़ों से ताड़ी उतारने का काम साल में पांच से छह महीने तक चलता है और इस दौरान इस समुदाय की महिलाएं न तो अपनी मांग में सिंदूर लगाती हैं और न ही किसी तरह का मेकअप करती हैं। समुदाय की महिलाएं शादी से जुड़ी अपनी सभी सौंदर्य सामग्री देवरिया से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तरकुलहा देवी के मंदिर में रखती हैं। 

इस समुदाय की कुल देवी हैं तरकुलहा देवी
तरकुलहा देवी को इस समुदाय की कुल देवी माना जाता है। गछवाहा समुदाय के लिए यह मंदिर एक तीर्थस्थान की तरह है। पांच-छह महीने के दौरान इस समुदाय की महिलाएं विधवा औरतों की तरह अपना जीवन बिताती हैं और सावन महीने के नागपंचमी के दिन तरकुलहा मंदिर में पूजा के लिए जुटती हैं। इस दिन मंदिर में पूजा के दौरान वे अपनी मांग सिंदूर से भरती हैं। तरकुलहा देवी मंदिर में पूजा के दौरान पशुओं की बलि देने की भी परंपरा है। 

'ताड़ी' उतारना मुश्किल भरा काम
गछवाहा समुदाय में यह परंपरा कब से से चली आ रही है, इसके बारे में अभी तक कोई ठोस जानकारी नहीं है लेकिन समुदाय के बुजुर्ग लोग बताते हैं कि वे अपने पूर्वजों से इस परंपरा के बारे में सुनते आए हैं। ताड़ के पेड़ों से 'ताड़ी' उतारने का काम काफी मुश्किल भरा माना जाता है क्योंकि इन पेड़ों की ऊंचाई कभी-कभी 50 फीट से ज्यादा होती है। समुदाय के युवक सुबह और शाम के समय पेड़ों पर चढ़कर 'ताड़ी' उतारते हैं। इन जिलों में 'ताड़ी' का खूब प्रचलन है। सुबह धूप से पहले पेड़ से उतरने वाली ताड़ी को स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद भी माना जाता है।