नई दिल्ली : दुनियाभर में आज मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा है, जो अपनी-अपनी भाषा के प्रति जनसमूह में प्यार, सम्मान, गर्व और अपनेपन को प्रदर्शित करता है। इसकी शुरुआत यूं तो 1992 से हुई, जब 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के तौर पर मनाने की घोषणा की थी, लेकिन बुनियाद साल 1952 में पड़ गई थी, जब पाकिस्तान की हुकूमत ने उर्दू को पूरे देश की आधिकारिक भाषा बनाने की घोषणा की। आज का बांग्लादेश तब पाकिस्तान का ही हिस्सा था और इसे पूर्वी पाकिस्तान के तौर पर जाना जाता था।
धर्म के आधार पर भारत से अलग होकर 1947 में अस्तित्व में आए पाकिस्तान ने अपनी उसी इस्लामिक पहचान को और पुख्ता करने के लिए देश के दूसरे हिस्से में भी उर्दू को आधिकारिक भाषा घोषित कर दी, यह जानते-समझते हुए भी कि भाषाई और सांस्कृतिक रूप से देश का यह हिस्सा कई मायनों में अलग रूझान रखता है। पाकिस्तानी हुकूमत के इस फैसले का बांग्लादेश में विरोध हुआ, लोग सड़कों पर उतरे, लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान ने उनकी एक न सुनी। आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्य ताकतों का इस्तेमाल किया गया, जिन्होंने लोगों पर बेइंतहां जुल्म ढाए।
मुक्ति संग्राम में बदल गया भाषाई आंदोलन
पाकिस्तानी हुक्मरानों को तब शायद ही इसका अंदाजा रहा होगा कि भाषा और संस्कृति को लेकर उसके अपने ही मुल्क के एक हिस्से में पनप रहा असंतोष एक दिन उसके बिखराव की वजह बनेगा और भाषाई पहचान को लेकर शुरू हुआ आंदोलन देखते-देखते देश के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए चलाए गए मुक्ति संग्राम में तब्दील हो जाएगा और जिस तरह भारत से टूटकर पाकिस्तान एक अलग मुल्क के तौर पर सामने आया, उसी तरह की परिणति पाकिस्तान की भी होगी और इसका पूर्वी हिस्सा अलग होकर एक स्वतंत्र व संप्रभु देश बांग्लादेश के रूप में सामने आएगा।
पूरे पाकिस्तान में उर्दू को आधिकारिक भाषा घोषित करने के बाद पूर्वी पाकिस्तान में अपनी भाषा व संस्कृति को लेकर जब युवाओं ने विरोध जताना शुरू किया तो पाकिस्तान की सेना ने उनके सीनों को गोलियों से छलनी कर दिया। करीब आधा दर्जन छात्रों की जान 1952 में पाकिस्तान सेना की कार्रवाई में गई। पाकिस्तानी सेना और वहां के हुक्मरान अपने ही मुल्क के पश्चिमी व पूर्वी दो हिस्सों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली, भाषा, रहन-सहन में फर्क और इसके आधार प उनकी विशेष पहचान को लेकर आग्रह को समझ नहीं पाए।
और इस तरह बंट गया पाकिस्तान
पूर्वी पाकिस्तान, जिसकी पूरी जीवनशैली, बोल-चाल में बांग्ला संस्कृति का गहरा प्रभाव है, वह उर्दू को देश राष्ट्रभाषा बनाने के फैसले से साफ तौर पर नाखुश था, जिसे पश्चिमी पाकिस्तान में बैठे सत्तासीन लोग कभी समझ ही नहीं पाए। बांग्ला भाषा व संस्कृति के प्रभाव के बावजूद देश के पूर्वी हिस्से पर भी राष्ट्रभाषा के रूप में उर्दू थोपे जाने के विरोध से हुई हुआ आंदोलन देश की आजादी का आन्दोनल बन गया, जिसे बांग्लादेश की मुक्ति संग्राम के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन ने 1970 के बाद और जोर पकड़ा और 1971 में बांग्लादेश एक स्वतंत्र मुल्क के तौर पर सामने आया।
बांग्लादेश में आगे चलकर हर साल 21 फरवरी को भाषा दिवस मनाया जाने लगा, क्योंकि 1952 में इसी दिन उर्दू को पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर थोपने के विरोध में छात्रों ने जब विरोध के स्वर बुलंद किए थे तो उन पर पाकिस्तानी सेना ने गोलियां चला दी थी। इस दिन लोग अपनी भाषाई पहचान के लिए जान कुर्बान कर देने वाले उन युवाओं को याद करते हैं, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। भाषाई पहचान की अहमियत को संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक व सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) ने भी महसूस की और 1992 में इस दिन को विश्व मातृभाषा दिवस घोषित किया।