अब बहार नहीं बात होगी बिहार की..नीतीश की मंद मंद मुस्कान पर 'पीके' की चोट

देश
ललित राय
Updated Feb 18, 2020 | 18:15 IST

इतने साल तक साथ रहने के बाद प्रशांत किशोर को अहसास हुआ कि नीतीश कुमार गांधी और गोडसे की विचारधारा के साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं, हालांकि पीके ने उस दौर की बात नहीं की जब नीतीश और बीजेपी एक साथ सरकार में थे।

इतने साल बाद पीके समझे कि नीतीश जी तो... 2004 की तो बात ही अलग थी
प्रशांत किशोर- नीतीश कुमार 
मुख्य बातें
  • नीतीश कुमार के खिलाफ ताल ठोकेंगे प्रशांत किशोर
  • 2004 वाले नीतीश और 2002 वाले में बहुत फर्क- प्रशांत किशोर
  • 'गांधी और गोडसे की विचारधारा एक साथ नहीं चल सकती है'

नई दिल्ली। राजनीति के खेल में सियासी चेहरे एक दूसरे के साथ कभी गलबहियां करते हैं तो कभी अदावत का चादर ओढ़कर निशाना भी साधते हैं। अगर कहा जाता है कि राजनीति में स्थाई दुश्मनी या स्थाई दोस्ती कहां होती है तो ये बात पूरी तरह सच है। लालू- नीतीश की दुश्मनी और दोस्ती को कौन भूल सकता है। बीजेपी के साथ गलबहियां करने के बाद जब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय फलक पर दस्तक देने के लिए अवतरित हुए तो नीतीश कुमार को अपनी शख्सियत कुछ धुंधली सी दिखाई देने लगी और उन्होंने बीजेपी के साथ गलबहियां को पूर्ण विराम देने का फैसला किया।
लालू का कुराज जब बना सुराज
नीतीश कुमार और उस शख्स के साथ यानि लालू यादव के साथ दोस्ती की जिन्हें वो जंगलराज का जनक मानते थे। लेकिन लालू की महत्वाकांक्षा हिलोरे मारने लगी तो उन्हें अपना पुराना यार अच्छा लगने लगा और एक बार फिर वो भगवा रंग में रंगने को तैयार हो गए। इन सबके बीच 2015 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को कौन भूल सकता है। नीतीश की शानदार जीत हुई और उस जीत के नायक के साथ एक और नाम चर्चा में था जिसे जीत का सूत्रधार कहते हैं, वो कोई और नहीं थे बल्कि प्रशांत किशोर थे।
पीके को तब नीतीश लगते थे अच्छे
प्रशांत किशोर, नीतीश कुमार से जुड़े रहे और बिहार सरकार भी उनके ऊपर मेहरबान रही। लेकिन मोदी  और शाह की जोड़ी ने नागरिकता संशोधन कानून, एनपीआर और एनआरसी का दांव क्या खेला कि प्रशांत किशोर तो नीतीश कुमार की अवधारणा और नियत में खोट दिखाई देने लगी। ये बात शायद वो भूल गए कि बीजेपी का असली चेहरा तो 2004 में भी वही था और 2020 में भी वही है। 
'अब नीतीश पर गोडसे की छाप'
प्रशांत किशोर कहते हैं कि 2004 में नीतीश जी अलग थे, लेकिन 2020 वाले नीतीश जी बदल गए हैं। आखिर गांधी और गोडसे एक साथ कैसे चल सकते हैं। अब पीके को कौन समझाए कि जब गोडसे की पैरोकार कही जाने वाली पार्टी बीजेपी खुद अपने आप को बदल रही है, गांधी के विचारों को प्राथमिकता देती है तो सहयोगी दल आखिर आरोप कैसे लगा सकती है।
एनपीआर, एनआरसी तो बहाना नहीं
सवाल ये है कि नागरिकता संशोधन कानून, एनपीआर और एनआरसी तो बहाना नहीं। आखिर किंग मेकर को किंग बनने से किसने रोका है। प्रेस कॉन्फ्रेंस में पीके सभी सवालों के जवाब में बोले कि बिहार को वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है। लेकिन वो भूल गए कि वैकल्पिक राजनीति का राग अलापने वाले अरविंद केजरीवाल सत्ता में तो हैं लेकिन अन्ना के आदर्शों को भूल गए।
20 फरवरी से प्रशांत किशोर बात बिहार की करेंगे और नई पारी का आगाज करने के रास्ते पर निकल जाएंगे। लेकिन सच तो यही है कि ड्राइंग रूम की राजनीति पर सड़क की राजनीति हमेशा भारी पड़ी है। जो नीतीश लालू यादव के कुराज के नाम पर सत्ता पर काबिज हुए वही कुराज नीतीश के लिए सुराज में बदल गया। ऐसे में नीतीश की राजनीति को समझ पाना आसान काम नहीं है। 


(प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।)

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