नई दिल्ली : "लोग कहते हैं कि 'ईश्वर जो करता है अच्छा करता है।' उत्तर-पूर्वी दिल्ली जिले में 24-25 फरवरी 2020 को हुए बलवों में ईश्वर ने क्या अच्छा कर दिया? हवलदार रतन लाल, आईबी के अंकित शर्मा सहित 47 बेबस-बेकसूरों को दंगों की आग में झोंक दिया गया। पुलिस लोगों की जान बचाने को होती है। न की बलवाइयों के बीच फंसे बेकसूरों की लाशें बिछवाने के लिए।" यह टिप्पणी दिल्ली पुलिस के ही पूर्व डीसीपी यानी पुलिस उपायुक्त लक्ष्मी नारायण राव ने की है।
हैरत में हूं कि जिला जलता रहा...
आईएएनएस के साथ सोमवार को विशेष बातचीत में एल.एन. राव ने आगे कहा कि हैरत में हूं कि जिला जलता रहा। लोग एक दूसरे के पीछे उसकी जान लेने को बेतहाशा गलियों-सड़कों पर भागते रहे। जिला डीसीपी, जोकि जिले की फोर्स का लीडर/कप्तान होता है, गोली चलाने के लिए ऑर्डर और हुक्म का इंतजार ही करता रहा। अगर उस दिन मैं नॉर्थ ईस्ट दिल्ली का डीसीपी होता तो खुद मरकर रतनलाल, अंकित समेत 47 बेकसूरों को मरने नहीं देता।
1977 में सब-इंस्पेक्टर भर्ती हुए थे राव
राव दिल्ली पुलिस में सन् 1977 में बतौर सब-इंस्पेक्टर भर्ती हुए थे। कालांतर में दिल्ली पुलिस ही क्या हिंदुस्तान की पुलिस में 'एनकाउंटर स्पेशलिस्ट' की श्रेणी में शीर्ष पर पहुंच गए। लिहाजा, एक के बाद एक आउट-ऑफ-टर्न प्रमोशन लेने वाले एल.एन. राव सन् 2014 में दिल्ली पुलिस डीसीपी स्पेशल सेल के पद से सेवा-निवृत्त हो गए।
एसएचओ रहते हुए मौत के मुंह में जाते-जाते बचे थे राव
15 सितंबर सन् 1994 को पश्चिमी दिल्ली में तिलक नगर थाने के एसएचओ रहते हुए एल.एन. राव सरेआम चौराहे पर हुई खूनी मुठभेड़ में कई गोलियां खाकर मौत के मुंह में जाते-जाते बचे थे। उस मुठभेड़ में राव की टीम ने लाखों रुपये के इनामी उत्तर प्रदेश के कुख्यात बदमाश बृज मोहन त्यागी और उसके साथी दिल्ली के अनिल मल्होत्रा को ढेर कर दिया था। हिंदुस्तान के मशहूर केबल व्यवसायी के युवा बेटे की एक करोड़ की फिरौती के लिए हुए अपहरण का खुलासा भी राव की टीम ने ही मेरठ में जाकर किया था। राव की टीम ने उस दौरान भी अपहर्ताओं को फिरौती के नाम पर एक फूटी कौड़ी दिए बिना, कुत्तों के बीच जंजीरों से बंधे पड़े पीड़ित को गाजियाबाद में एक कोठी से सकुशल बचा लिया था।
सब कुछ पुलिस की लेट-लतीफी से हुआ
24 और 25 फरवरी, 2020 को उत्तर पूर्वी दिल्ली जिले में हुई भीषण मारकाट की असल वजह पूछे जाने पर राव ने कहा कि सब कुछ पुलिस की लेट-लतीफी से हुआ। पुलिस तुरंत एक्शन में आ गई होती, तो दो- चार लाशें गिरने तक ही मामला निपट जाता। वो भी मरने वाले बलवाई होते। न हवलदार रतन लाल मारे गए होते, न आईबी का जाबांज अंकित शर्मा। न आम पब्लिक के 40-45 बाकी बेकसूर पुलिस की ढीली रणनीति की भेंट चढ़ते।"
खुद सबसे आगे चल रहा होता
आप खुद भी दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के डीसीपी रहे हैं। उस दिन अगर उत्तर-पूर्वी दिल्ली जिले के डीसीपी आप होते तो क्या करते? पूछे जाने पर एल.एन. राव ने बेबाकी से बताया कि जिले में अपने पास मौजूद डीसीपी रिजर्व को मय हथियार इलाके की गलियों में घुसा देता। खुद सबसे आगे चल रहा होता। 9 एमएम का छोटा सरकारी असलहा 'पिट-पिट' की आवाज करता है। इसलिए हाथ में एके-47 खुद थामता। पहले बलवाइयों को लाउडस्पीकर पर ऐलान करके सरेंडर करने का फरमान सुनाता। नहीं मानते तो उनकी मांद में घुसकर उन्हें गोलियों से भूनकर छलनी करके चुप करा आया होता।"
दफन हो चुकी थी पुलिस में नेतृत्व क्षमता
बताते-बताते राव ने आईएएनएस से सवाल किया कि अब बताइए, आपके हिसाब से मुझे और क्या करना चाहिए था? बेबाक बातचीत के दौरान बिना किसी लाग लपेट के दिल्ली पुलिस के इस पूर्व डीसीपी ने कहा कि दरअसल, उस दिल्ली जिला पुलिस में नेतृत्व क्षमता दफन हो चुकी थी। जिला पुलिस को लीड करने वाला अफसर नौकरी बचाने के लिए बेहद हड़बड़ाहट और घबराहट में रहा होगा। उसकी समझ में ही नहीं आया होगा कि वो करे तो क्या करे? जब तक वो कुछ सोच पाता, बलवाइयों ने पुलिस और बेकसूरों पर चढ़ाई कर दी।
डीसीपी गोली चलाने के लिए किसके आदेश का इंतजार कर रहे थे?
24-25 फरवरी को आप बलवाइयों से निपटने के लिए क्या गोली चलाने से पहले उच्चाधिकारियों से इजाजत नहीं लेते? पूछने पर राव ने कहा कि जब जिले का डीसीपी मैं हूं और दिल्ली केंद्र शासित राज्य है, तब यहां के डीसीपी को यूपी के किसी जिले की तरह गोली चलाने से पहले जिलाधिकारी से परमीशन लेनी ही नहीं है। तब फिर उस दिन डीसीपी गोली चलाने के लिए किसके आदेश का इंतजार कर रहे थे? मेरी तो समझ से बाहर है कि उस दिन आखिर पुलिस ने इस कदर तांडव होने ही क्यों दिया?"
देश का बच्चा-बच्चा जानता है जिम्मेदार कौन है?
क्या आप मानते हैं कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली जिले को उन दो दिनों में जलवाने की जिम्मेदार सीधे सीधे जिला पुलिस है? पूछने पर राव ने कहा कि जिम्मेदार कौन और क्यों है? देश का बच्चा-बच्चा जानता है। मैं अपनी बता सकता हूं कि मैं भले ही खुद मर जाता, मगर बेकसूर 47 लोगों की जान तो कम से कम फोकट में उस दिन नहीं लुटने देता। और मैं मरता भी तो कम से कम 25-30 बलवाइयों को लाश में तब्दील करके मरता। गोली चलाने का हक मुझे था। क्योंकि मैंने डीसीपी की वर्दी बदन पर देशहित में ही पहनी होती। न कि जनता को मरवा डालने के लिए या फिर जाफराबाद, मुस्तफाबाद, शिव विहार, मौजपुर, करावल नगर, भजनपुरा बलवाइयों के हाथों जलवा डालने के लिए।
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