नई दिल्ली : प्रकृति और इस धरती पर मौजूद तमाम तरह के जीवों का संबंध आज से नहीं, अनंतकाल से ही घनिष्ठ रहा है, जिनमें सामाजिक प्राणी मनुष्य भी शामिल है। वास्तव में मानव विकास की प्रक्रिया प्रकृति की गोद में ही शुरू हुई और अगर यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वास्तव में इंसान का वजूद प्रकृति से ही है। हालांकि विकास की अंधाधुंध दौड़ में इंसानों ने सबसे अधिक प्रकृति को ही नुकसान पहुंचाया, जिसका सीधा दुष्परिणाम खुद उसे भुगतना पड़ रहा है। आखिर उसका वजूद प्रकृति से अलग कहां है?
दुनिया में तमाम घटनाक्रम हम इंसानों को बार-बार इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए प्रेरित और बाध्य करते हैं। ये अलग बात है कि मनुष्य बिरादरी इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और विकास की अंध दौड़ में बार-बार उस दोराहे पर खड़ी हो जाती है,जहां से उसके लिए समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि आखिर वह आगे के सफर के लिए कौन सा रास्ता चुने। मौजूदा हालात में कोरोना वायरस संक्रमण भी एक बार फिर प्रकृति के साथ उसी तालमेल की अहमियत बताता है, जो आज दुनियाभर में एक बड़े स्वास्थ्य संकट के तौर पर सामने आया है।
कोरोना वायरस पहला स्वास्थ्य संकट नहीं है, जो इंसान के अप्राकृतिक व्यवहार को दर्शाते हुए जीवनशौली में बदलाव के लिए प्रेरित करता है। इस स्वास्थ्य आपदा से अब तक दुनियाभर में 3.93 लाख से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है, जबकि 66.98 लाख से अधिक लोग अब भी इसकी चपेट में हैं। इससे पहले प्लेग, हैजा, स्पेनिश फ्लू, सार्स, एच1एन1, इबोला जैसी कई महामारियों का मुकाबला इस मानव बिरादरी ने किया है, जिसमें लाखों लोग काल के गाल में समा गए। पर ऐसा लगता है कि इंसान बार-बार प्रकृति के इन संकेतों की अनदेखी करता है, जिसका नतीजा अंतत: उसके लिए तमाम दुख, तकलीफ और शोक के तौर पर सामने आता है।
दुनियाभर में कोरोना वायरस सहित कई महामारियों का सीधा संबंध इंसानों द्वारा प्रकृति व पारिस्थितिकी में छेड़छाड़ से है। पारिस्थितिकी तंत्र में किसी भी तरह का बदलाव पूरे पर्यावरण जगत को प्रभावित कर सकता है, जिसका सामना दुनिया बार-बार कर रही है। इंसानी लालच कह लें या विकास की अंध दौड़ इस धरती पर न केवल प्राकृतिक चीजों को लगातार नुकसान पहुंचाया जा रहा है, बल्कि तमाम जीव-जंतु भी विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए हैं। जैविक छितराव, प्रवास, जनांकिकीय प्रभाव आदि कई ऐसे कारण हैं, जिसकी वजह से दुनियाभर में जैव विविधता नष्ट होती जा रही है और जैविक प्रजातियों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है।
जैव विविधता एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है, जो प्राकृतिक व पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से बेहद अहम है। छोटी सी चिड़िया हो या हाथी जैसा विशालकाय जानवर, ये सब खाद्य शृंखला का एक उचित तालेमल बनाए रखते हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, दुनियाभर में इनकी संख्या 20 लाख के आसपास है और ये सभी प्रकृति व पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, सभी की इसमें समान भागीदारी होती है। पर्यावरण संतुलन में जैव विविधता के महत्व को दर्शाने के लिए ही इस बार संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण दिवस का थीम इस विषय को चुना है। यह सब एक बार फिर इसका एहसास दिलाता है कि हमें अपने विकास की प्रक्रिया के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है।
विकासवाद और भौतिकवाद की अंध दौड़ में प्रकृति को जो नुकसान इंसानों ने पहुंचाया है, उसी का दुष्परिणाम हमें बाढ़ की विभीषिका, भूकंप, सुनामी, आंधी, तूफान, चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भी झेलना पड़ता है। प्रदूषण इंसानों ही नहीं, तमाम जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, नदियों, जल-प्रपातों, सभी के लिए एक अलग संकट पैदा कर रहा है, जो मनुष्य की भौतिक लालसा का ही दुष्परिणाम है। कोरोना जैसे विकराल स्वास्थ्य संकट और विगत वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर बढ़ती वैश्विक चिंताओं के बीच हमें एक बार फिर से समझने की जरूत है कि प्रकृति व पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन बरकरार रखा जाए, ताकि पर्यावरणीय आपातकाल जैसी भयावह स्थिति से बचा जा सके, वरना अप्राकृतिक विकासात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देने, प्रकृति के साथ खिलवाड़ से धरती पर जो कुछ घटित होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह सभी के लिए घातक साबित होगा।
(डिस्क्लेमर: प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है)
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