Mukul Roy BJP Mammta Banerjee : कोरोना संकट के बीच इन दिनों उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक की सियासत गर्म है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद प्रदेश में किसी 'बड़े बदलाव' को लेकर कयासबाजियां शुरू हो गई हैं तो उधर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से बीजेपी में जाने वाले मुकुल रॉय ने करीब चार साल बाद अंतत: घर वापसी कर ली है। ममता बनर्जी से अनबन के बाद नवंबर 2017 में वह टीएमसी छोड़ बीजेपी में शामिल हुए थे और अब पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के बाद वह फिर टीएमसी में लौट आए।
चुनावों से पहले नेताओं का पाला बदलना राजनीति में इन दिनों आम हो चुका है, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद किसी दिग्गज नेता का इस तरह का कदम कम ही देखने को मिला है। बंगाल की सियासत के चश्मे से देखें तो मुकुल रॉय के इस कदम के दूरगामी असर हो सकते हैं। बंगाल की राजनीति में 'चाणक्य' कहे जाने वाले मुकुल का संगठनात्मक अनुभव पहले टीएमसी के काम आया तो बाद में बीजेपी के। बंगाल के कोने-कोने में टीएमसी संगठन को मजबूत बनाने में उनकी भूमिका बेहद अहम रही है तो 2017 के बाद इसका लाभ बीजेपी को भी मिला।
अब जब वह एक बार फिर टीएमसी में लौट आए हैं तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर बीजेपी को इससे क्या नुकसान हो सकता है और टीएमसी को इसका क्या फायदा मिलेगा? राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं और सरकार का गठन भी हो चुका है। ऐसे में मुकुल रॉय के टीएमसी में जाने से कोई फौरी बदलाव तो देखने को नहीं मिल रहा, लेकिन जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, इसके दूरगामी असर हो सकते हैं। इसका असर आगामी निकाय चुनावों के साथ-साथ 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों पर भी हो सकता है।
आगामी लोकसभा चुनाव में हालांकि अभी तीन साल का वक्त है, लेकिन यह भी सच है कि चुनावी तैयारियां एक दिन में नहीं होतीं, इसके लिए लंबी तैयारी करनी होती है और जमीनी स्तर पर काम करना होता है। फिर कोरोना संकट के कारण पैदा हुए हालात के नियंत्रण में आने के बाद यहां कोलकाता नगर निगम सहित 100 से अधिक नगर निकायों के चुनाव होने हैं, जिसमें टीएमसी को मुकुल रॉय की घर वापसी और पार्टी संगठन को मजबूत बनाने में उनके अनुभव का फायदा मिल सकता है। खासकर ऐसे में जबकि उन्हें संगठन की धुरी माना जाता है, टीएमसी को संगठनात्मक स्तर पर इसका फायदा मिलने की उम्मीद बेमानी नहीं है।
मुकुल राय का बीजेपी छोड़ टीएमसी में वापस जाना राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ा राजनीतिक संदेश देने वाला है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जिस तरह ममता बनर्जी एक मजबूत नेता के रूप में उभरी हैं, उसे देखते हुए यह और भी अहम नजर आ रहा है। उनकी घर वापसी ऐसे समय में हुई है, जबकि प्रदेश में पहले से ही अटकलों का बाजार गर्म है कि बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीतने वाले 33 विधायक पाला बदलते हुए टीएमसी का दामन थाम सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह बीजेपी के लिए बड़ा झटका हो सकता है।
मुकुल राय का जाना भी अपने आप में बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका है, क्योंकि टीएमसी छोड़ बीजेपी में शामिल होने के बाद पार्टी ने उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी थी। वह पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे और 2017 में पार्टी से जुड़ने के बाद वह लगातार राज्य में बीजेपी को संगठनात्मक स्तर पर मजबूत करने में जुटे थे, जिसका नतीजा 2019 के लोकसभा चुनाव और हालिया विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिम बंगाल से 18 सीटें जीतकर न केवल ममता बनर्जी के माथे पर बल ला दिया था, बल्कि राजनीतिक पंडितों को भी हैरान कर दिया था। हालिया विधानसभा चुनाव की ही बात करें तो पार्टी ने यहां 77 सीटों पर जीत दर्ज की है। हालांकि यह प्रदर्शन बीजेपी की उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहा, लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले यह काफी अहम है, जब बीजेपी को यहां महज 3 सीटों पर जीत मिली थी।
बीजेपी ने यह बढ़त हालांकि टीएमसी को नुकसान पहुंचाकर नहीं हासिल की, बल्कि यह कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के खराब प्रदर्शन का नतीजा रही, जो शून्य पर सिमट गईं। बीजेपी की इस बढ़त का श्रेय काफी हद तक मुकुल राय को जाता है, जिन्होंने ठीक उसी तरह प्रदेश में पार्टी को संगठनात्मक स्तर पर मजबूत करने का काम किया, जैसा कि उन्होंने तृणमूल में रहते हुए पार्टी के लिए किया था।
इसके अतिरिक्त चुनाव से ठीक पहले टीएमसी के कई नेताओं ने बीजेपी का नाम थामा था, जिसमें कभी ममता बनर्जी के करीबी रहे सुवेंदु अधिकारी जैसे नेता भी शामिल रहे। बड़ी संख्या में टीएमसी के नेताओं के बीजेपी में शामिल होने में भी मुकुल राय की भूमिका अहम मानी जाती रही है। वह तृणमूल के संस्थापक सदस्यों में से रहे हैं, जिन्होंने कांग्रेस से अलग होकर यह पार्टी बनाई थी। वह ममता बनर्जी के करीबी भी थे, जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2011 का पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव जीतने के बाद जब ममता बनर्जी ने रेल मंत्री का पद छोड़ा था, तब उन्होंने दिनेश त्रिवेदी के बाद मुकुल राय का ही नाम आगे बढ़ाया था। उस वक्त टीएमसी केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली केंद्र की एनडीए सरकार में शामिल थी।
टीएमसी में लंबा वक्त बिताने के नाते जाहिर तौर पर मुकुल राय पार्टी के असंतुष्ट नेताओं को जानते थे और उनके संपर्क में भी थे। ऐसे में जैसे ही चुनाव का वक्त आया, इन नेताओं ने पाला बदलते हुए बीजेपी का दामन थाम लिया। कुल मिलाकर देखें तो मुकुल राय टीएमसी छोड़कर बीजेपी में जाने वाले पार्टी के पहले दिग्गज नेता थे, जिसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा। अब जब टीएमसी में उनकी वापसी हो गई है तो ये कयास अनायास ही नहीं हैं कि चुनाव से पहले टीएमसी के जिन नेताओं ने पार्टी का दामन छोड़ा था, वे एक बार फिर पार्टी में वापसी कर सकते हैं।
मुकुल राय की टीएमसी में वापसी में ममता बनर्जी के भतीजे व टीएमसी सांसद अभिषेक बनर्जी की भूमिका अहम मानी जा रही है, तो बीजेपी से उनकी उम्मीदों का पूरा न होना भी एक बड़ी वजह है। कोरोना वायरस से संक्रमित अस्पताल में भर्ती मुकुल राय की पत्नी को देखने सबसे पहले अभिषेक बनर्जी ही पहुंचे थे, जिसके बाद बीजेपी के नेताओं ने भी इसमें सक्रियता दिखाई। वहीं विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने जिस तरह से सुवेंदु अधिकारी को आगे बढ़ाया और विपक्ष का नेता बनाया, उससे पार्टी की रणनीति साफ हो गई कि वह आगे का सियासी सफर इस युवा और आक्रामक तेवर वाले नेता के साथ ही तय करने का मन बना चुकी है। ऐसे में मुकुल राय के लिए पार्टी में कुछ खास बचा नहीं रह गया।
मुकुल राय ने 2017 में जब टीएमसी छोड़ी थी तो उनकी एक बड़ी परेशानी पार्टी में अभिषेक बनर्जी के बढ़ते कद को लेकर थी और आज वही परेशानी बीजेपी के साथ उन्हें नजर आई, जिसमें चुनाव से ठीक चार महीने पहले बीजेपी से जुड़ने के बाद भी सुवेंदु अधिकारी का कद उनसे कहीं अधिक बढ़ गया। इसे लेकर उनके बेटे शुभ्रांशु राय में भी नाराजगी थी, जिन्हें अपना राजनीतिक भविष्य बीजेपी के साथ नजर नहीं आ रहा था। वहीं, टीएमसी में मुकुल राय की जो हैसियत थी, उसे उनके बीजेपी में शामिल होने के बाद कुछ हद तक पूरा करने की कोशिश सुवेंदु अधिकारी के जरिये हुई, पर वह भी चुनाव के पहले बीजेपी में शामिल हो गए। ऐसे में मुकुल रॉय की टीएमसी में वापसी जाहिर तौर पर ममता बनर्जी को राहत देने वाली तो है ही, उनके लिए किसी बड़ी सियासी 'जीत' से कम नहीं है।
(डिस्क्लेमर: प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।)
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