नई दिल्ली: राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार पर संकट गहरा गया है। गहलोत अपनी सरकार बचा पाएंगे या नहीं यह समय ही बता पाएगा। सचिन पायलट गुट की दावे की मानें और मौजूदा राजनीतिक समीकरण को देखने से यही लगता है कि गहलोत सरकार बहुमत के आंकड़े से दूर हो गई है। फौरी तौर पर गहलोत अपनी सरकार बचाने में यदि सफल भी हो जाते हैं फिर भी उनकी सरकार के अस्थिर होने का खतरा हमेशा बना रहेगा क्योंकि ऐसा लगता है कि पायलट कांग्रेस में वापसी न करने का मन बना चुके हैं। पायलट ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होने या न होने को लेकर अभी साफ-साफ कुछ नहीं कहा है लेकिन भाजपा की तरफ से उन्हे अपने पाले में करने की उसकी अंदरूनी कोशिशें जारी हैं। भाजपा नेता भी पायलट के साथ अन्नाय होने का बयान देकर उनके साथ सहानुभूति जता रहे हैं।
राजस्थान में गहलोत और पायलट के बीच वर्चस्व की यह लड़ाई नई नहीं है। इसके बीच सरकार बनने के समय ही पड़ गए थे। कांग्रेस ने राजस्थान का विधानसभा चुनाव पायलट को आगे रखकर लड़ा था। पायलट प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर उनका दावा स्वाभाविक रूप से बनता था जैसा कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुआ। यहां प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और भूपेंद्र सिंह बघेल मुख्यमंत्री बनाए गए। लेकिन राजस्थान में कांगेस का यह फॉर्मूला लागू नहीं हुआ। सत्ता की इस रेस में गहलोत बाजी मार ले गए। कांग्रेस आलाकमान ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपने इस वरिष्ठ नेता को ज्यादा उपयुक्त पाया। इस वक्त पायलट मन मसोस के रह गए। इसके बाद से ऐसे कई मौके आए जब पायलट ने अपनी ही सरकार के खिलाफ बयान दिए। उन्होंने इस बात का संकेत भी दिया कि उन्हें हाशिए पर किया जा रहा है और उनके अधिकार सीमित किए जा रहे हैं।
शिकायतों,आपत्तियों पर नहीं दिया ध्यान
राजस्थान में कांग्रेस के सामने सरकार गंवाने का यह संकट यदि उभरा है तो इसके लिए बहुत कुछ वही जिम्मेदार है। अपने क्षेत्रीय नेताओं में लंबे समय से पनप रहे असंतोष को उसने दूर करने की कोशिश नहीं की। उनकी शिकायतों एवं आपत्तियों पर ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस हाल के वर्षों में जिन राज्यों में सत्ता में आई है, वहां पार्टी को जीत दिलाने में उसके क्षेत्रीय नेताओं की भूमिका काफी अहम रही है। कर्नाटक में सिद्धारमैया, मध्य प्रदेश में कमलनाथ, दिग्विजिय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, छत्तीसगढ़ में बघेल और राजस्थान में गहलोत और पायलट। इन राज्यों में कांग्रेस के इन प्रादेशिक नेताओं ने चुनाव के दौरान अपने वर्चस्व एवं गुटबाजी को छोड़ पार्टी को जिताने के लिए काम किया। चूंकि, छत्तीसगढ़ में बघेल को छोड़कर कांग्रेस का कोई अन्य नेता सीएम पद के लिए रेस में नहीं था ऐसे में यहां कांग्रेस को अपने नेताओं में टकराव का सामना नहीं करना पड़ा।
गहलोत सरकार के लिए बहुमत का आंकड़ा हो सकती है चुनौती
मध्य प्रदेश और कर्नाटक में दूसरी स्थिति थी। कर्नाटक में भी गुटबाजी है। यहां सिद्धारमैया का खेमा अलग है। मध्य प्रदेश कांग्रेस में तो क्षेत्रीय छत्रपों की आपसी गुटबाजी और वर्चस्व की लड़ाई जगजाहिर है। यहां कलमनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया को लगा कि उन्हें हाशिए पर ढकेला जा रहा है। सिंधिया की चिंताओं एवं असंतोष को कांग्रेस आलाकमान समय रहते दूर करने का प्रयास नहीं किया। इससे आहत होकर सिंधिया अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए और कांग्रेस की सरकार गिर गई। मध्य प्रदेश में सिंधिया के अलग होने की कीमत कांग्रेस को अपनी सरकार गंवाकर चुकानी पड़ी। ऐसी ही परिस्थिति राजस्थान में बनी है। पायलट कांग्रेस छोड़ने का करीब-करीब मन बना चुके हैं। वह अपने समर्थकों के साथ पार्टी यदि छोड़ देते हैं तो गहलोत सरकार बहुमत का आंकड़ा कैसे बनाकर रखती है यह देखने वाली बात होगी।
कांग्रेस के लिए अपने क्षेत्रीय नेताओं की अनदेखी भारी पड़ रही है
कांग्रेस के लिए अपने क्षेत्रीय नेताओं की अनदेखी भारी पड़ रही है। असम और आंध्र प्रदेश में क्षेत्रीय नेताओं की न सुनने की वजह से उसे सत्ता से जाना पड़ा। पंजाब में वह कैप्टन अमरिंदर की वजह से सत्ता में है। पार्टी के युवा नेता उससे दूर होते जा रहे हैं। गुजरात में अल्पेश ठाकोर, असम में हेमंत बिस्वा शर्मा, मध्य प्रदेश में सिंधिया ने भाजपा का दामन थाम लिया। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू के आप में शामिल होने की चर्चाएं हैं। राजस्थान में अब पायलट उससे छिटक रहे हैं। इनमें से ज्यादातर नेताओं की शिकायत रही है कि पार्टी आलाकमान उनकी बातें नहीं सुनता है। क्षेत्रीय नेताओं की चिंताओं का समाधान नहीं होने पर उनमें पार्टी के प्रति आक्रोश बढ़ जाता है और यह आक्रोश उन्हें बगावत करने के लिए बाध्य करता है। राजस्थान में यही हो रहा है। पायलट ने बगावती तेवर अपना लिया है। अब देखते यह है कि कांग्रेस सियासत के इस भूचाल का कैसे सामना करती है।
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