नई दिल्ली : बहुजन समाज पार्टी (BSP) की सुप्रीमो मायावती ने ऐलान कर दिया है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में किसी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करेंगी। इन दोनों राज्यों में बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी। दरअसल, यूपी में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने की अटकलों के बीच मायावती ने रविवार को अपने ट्वीट से स्पष्ट कर दिया कि उनकी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने की कोई मंशा नहीं है। हालांकि, बसपा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के साथ गठबंधन में है। पंजाब में भी अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं।
एआईएमआईएम से इसलिए बनाई दूरी?
एआईएमआईएम से गठबंधन न करने की मायावती ने कोई वजह तो नहीं बताई है लेकिन इतना साफ है कि मायावती ने ओवैसी की पार्टी से दूरी बनाकर अपना सियासी समीकरण साधने की कोशिश की है। जानकार मानते हैं कि ओवैसी की छवि एक कट्टरपंथी नेता के तौर पर उभरी है। बसपा का उनके साथ जाने पर बहुसंख्यक वोटरों का ध्रुवीकरण होने की संभावना है। यह बात यूपी की सभी बड़ी पार्टियां जानती हैं कि ओवैसी के साथ जाने से उनके गैर-मुस्लिम वोटों में बिखराव होगा और इसका फायदा कहीं न कहीं भाजपा को होगा। बंगाल विस चुनाव में ओवैसी को मुस्लिमों ने खारिज कर दिया। ऐसे में यह जरूरी नहीं है कि यूपी का मुस्लिम समुदाय भी एआईएमआईएम को गंभीरता से लेगा।
गठबंधन कर चुनाव लड़ती रही है बसपा
बसपा की अगर बात करें तो गठबंधन कर चुनाव लड़ने का इतिहास उसका पुराना है। लोकसभा चुनाव 2019 में उसने अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टी समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। इस चुनाव में बसपा शून्य सीट से 10 सीट पर आ गई। हालांकि, चुनाव के बाद मायावती ने कहा कि इस गठबंधन से उन्हें कोई फायदा नहीं पहुंचा। समाजवादी पार्टी का वोट ट्रांसफर नहीं होने का दावा कर उन्होंने गठबंधन तोड़ लिया। हालांकि, यूपी के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में बसपा का प्रदर्शन फीका नहीं रहा है।
बीते चुनावों में नीचे गिरा है बसपा का प्रदर्शन
यूपी में साल 2012 के बाद से बसपा सत्ता से बाहर है। 2007 के विधानसभा चुनाव में उसने 206 सीटें जीती थीं लेकिन 2012 के चुनाव में उसे सपा के हाथों अपनी सत्ता गंवानी पड़ी। इसके बार 2017 का विधानसभा चुनाव बसपा के लिए भारी साबित हुआ। वह सिमटकर 19 सीटों पर आ गई। पिछले 10 सालों में यूपी में बसपा के प्रदर्शन का ग्राफ नीचे गिरा है। उसके बड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य, तस्लीमुद्दीन और ब्रजेश पाठक दूसरी पार्टी का दामन थाम चुके हैं। मौर्य और पाठक भाजपा के साथ हैं तो तस्लीमुद्दीन कांग्रेस में हैं। हाल के दिनों में पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए मायावती ने राम अचल राजभर, लालजी वर्मा सहित कई विधायकों पर कार्रवाई की है।
सरकार की ओलचना से करने से बचती रही हैं
बसपा की राजनीति के जानकार मानते हैं कि मायावती अपने वोट बैंक को लेकर आश्वस्त रहती हैं। उन्हें पता है कि अपने वोट बैंक को उन्हें कैसे संबोधित करना है। साल 2007 में विस की 206 सीटें जीतने में उनकी सोशल इंजीनियरिंग 'दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण' गठजोड़ ने बड़ी भूमिका निभाई। मायावती आगे भी अपने इस फॉर्मूले को आजमाना चाहेंगी। एनआरसी, सीएए, अनुच्छेद 370 सहित कई मुद्दों पर उन्होंने भाजपा की खुलकर आलोचना नहीं की। इससे मुस्लिम समुदाय में भाजपा से उनकी करीबी को लेकर संदेह हुआ।
सरकार पर दबाव बनाने की राजनीति से खुद को दूर रखा
मायावती हाल के मुद्दों पर ज्यादा मुखर दिखाई नहीं दी हैं। किसान आंदोलन के मसले पर उन्होंने सरकार की आलोचना कर एक तरह से केलव रस्म अदायगी की है। कोरोना संकट पर कांग्रेस और सपा जहां केंद्र सरकार पर तीखा हमला बोला वहीं, मायावती के सुर नरम रहे। वह सरकार को संकट से निपटने के सुझाव देती आईं। खुद को उन्होंने दबाव बनाने की राजनीति से दूर रखा। कहने का मतलब है कि मायावती केंद्र एवं यूपी सरकार दोनों की मुखर आलोचना करने से बचती रही हैं। यूपी विधानसभा चुनाव में वह किस तेवर के साथ उतरेंगी यह अभी साफ नहीं है।
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