पितृपक्ष में दान-पुण्य का विशेष विधान होता है, लेकिन एक बार दानवीर कर्ण को सिर्फ इसलिए धरती पर मरने के बाद वापस आना पड़ा, क्योंकि उन्होंने कुछ चीजों का दान आपने जीवनकाल में कभी नहीं किया था। महाभारत जब भी महावीर कर्ण का नाम आता है तो उनके नाम के आगे दानवीर का संबोधन हमेशा किया जाता है, लेकिन मरने के बाद कर्ण को केवल इसलिए धरती पर 16 दिन आना पड़ा क्योंकि उन्होंने कुछ खास चीजों का महत्व नहीं समझा था। तो आइए आपको इस कथा से परिचित कराएं और यह भी बताएं की श्राद्ध में दानपुण्य का क्या महत्व होता है।
पितरों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक दान-पुण्य करने के साथ उनका श्राद्ध किया जाता है। पितरों के प्रसन्न होने पर घर में सुख और समृद्धि का वास होता है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पूर्वजों के लिए तर्पण करने का विधान होता है और जो भी अपने पितरों का श्राद्ध और पिंडदान करता है उसे विशेष फल की प्राप्ति होती है। श्राद्ध, पिंडदान और दान का महत्व पितृपक्ष में विशेष रूप से होता है। मान्यता है की जो कुछ मनुष्य अपने जीवनकाल में दान करता है, उसे परलोक में वही मिलता है।
भोजन में परोसा गया स्वर्ण
पौराणिक कथा के अनुसार दानवीर कर्ण की आत्मा मरने के बाद जब स्वर्गलोक पहुंचे। दानवीर होने के कारण उन्हें स्वर्गलोक तो मिला लेकिन जब भोजन का समय आया तो बाकी पुण्य आत्माओं के आगे तो भोजन आया लेकिन कर्ण के सामने सोना और चांदी परोस दिया गया। यह देख कर कर्ण इंद्रदेव के पास गए और उनसे अपनी व्यथा बताई तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि उन्होंने जीवनभर सोने-चांदी का दान तो बहुत किया लेकिन कभी अपने पूर्वजों को भोजन का दान नहीं दिया। न ही कभी किसी तीज-त्योहार पर ही उन्होंने अन्न दान किया है। तब कर्ण ने इंद्र से उपाय पूछा तो उन्होंने कर्ण को 16 दिनों के लिए पृथ्वी पर वापस जाने की अनुमति दी ताकि अपने पूर्वजों को भोजन दान कर सकें।
यही कारण है कि पितृपक्ष में संत, गुरुजन और रोगी वृद्ध या जरूरतमंदों की जितनी सेवा हो सके करना चाहिए। साथ ही अपने परलोक सुधार के लिए भी दान-पुण्य करना चाहिए। त्योहारों पर दान करना इसलिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। श्राद्ध के दिनों में घर पर कोई भिक्षा मांगने आए तो उसे कभी खाली हाथ नहीं भेजना चाहिए। मान्यता है कि यदि पितृ प्रसन्न नहीं होते तो परिवार में बाधाएं आती हैं। अकाल मृत्यु का भय बना रहता है।
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