बीजिंग: चीन के चार सबसे बड़े परंपरागत त्योहारों में से एक तुआनवु त्योहार आ रहा है। चीनी कृषि पंचाग के पांचवें महीने का पांचवां दिन तुनाआवु त्योहार है ।चालू साल वह तीन जून को पड़ता है। इस त्योहार में सब से अहम रीति रिवाज ड्रैगन बोट रेस है, इसलिए तुआनवु त्योहार को ड्रैगन बोट फेस्टिवल भी कहा जाता है। ड्रैगन बोट रेस दक्षिण भारत के केरल की स्नेक बोट रेस से मिलती जुलती है । अवश्य दोनों में फर्क भी है। आज हम ड्रैगन बोट और स्नेक बोट की तुलना करेंगे।
ध्यान से देखें, तो चीनी ड्रैगन बोट का अगला भाग ड्रैगन का सिर और पीछे का भाग ड्रैगन की पूंछ है, जबकि स्नेक बोट उठती हुई नाग जैसी है। दोनों रेस के तरीके लगभग समान हैं। नदी व झील में एक निर्धारित लंबाई में कौन सब से पहले फिनिश लाइन पास करता है, कौन जीत पाता है। दोनों बोट पर एक लीडर और एक या दो ड्रामर तैनात हैं।
लीडर निर्देश देते हैं और गति व दिशा तय करते हैं। ड्रामर नाविकों को उत्साह देते हैं। डैगन बोट पर आम तौर पर 30 से 35 नाविक सवार होते हैं, जबकि स्नेक बोट पर नाविकों की संख्या कहीं अधिक होती है और अकसर 100 से 140 के बीच होती है। दोनों बोट रेस परंपरागत त्योहारों का अभिन्न अंग है। प्रतिस्पर्धा धूमधाम से चलती है, जो बड़ी संख्या वाले दर्शकों को खींचती हैं। माहौल शोरगुल और हर्ष से भरा हुआ होता है।
चीनी ड्रैगनबोट का इतिहास कई हजार वर्ष पुराना है। शुरू में डैगन बोट रेस बलिदान में एक कार्यक्रम था, जिसका उद्देश्य देवता को खुश करना था। लगभग ई सा पूर्व 278 वर्ष में युद्ध काल के छु राज्य में एक महशूर कवि और देशभक्त छुय्वेन ने तत्कालीन अंधेरी राजनीतिक स्थिति पर हताश होकर मी लुओ नामक नदी में कूद कर आत्म हत्या की।
स्थानीय लोगों ने यह खबर सुनकर फौरन ही अपनी अपनी नाव पर सवार होकर नदी में छुय्वेन की तलाश करने की भरसक कोशिश की ,लेकिन कुछ नहीं मिला। बाद में छुय्वेन की याद करने के लिए ड्रेगन बोट रेस एक रीति रिवाज बन गयी। भारत के स्नेक बोट का जन्म 13वीं सदी के शुरू में केरल में हुआ। कहा जाता है कि चेमबाकसेरी के नरेश कायामकुलाम ने एक युद्ध जीतने के लिए चुडन वल्लम (स्नेक बोट) निर्मित करने का आदेश दिया। बाद में सैन्य उद्देश्य से बना स्नेक बोट स्थानीय लोगों के जीवन से जुड़ गया और फसल काटने की खुशियां मनाने के लिए स्नेक बोट रेस पैदा हुई। ऐसा कथन भी है कि स्नेक बोट वास्तव में चीन के ड्रेगन बोट से आया, क्योंकि प्राचीन समय में केरल और चीन के बीच बहुत आवाजाही थी। पर इसका ठोस प्रमाण अब तक नहीं मिला है।