नई दिल्ली। क्या पाकिस्तान में इमरान खान की लोकप्रियता में कमी आ रही है या उनकी पकड़ सरकार पर कमजोर हो रही है। दरअसल यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि पिछले दो महीने में तीन महत्वपूर्ण जगहों पर जो नियुक्तियां हुई हैं उसमें सेना का दबदबा है। उदाहरण के तौर पर इस समय सरकार की स्वामित्व वाली एयरलाइन पर फौजी बैठा हुआ है, ठीक उसी तरह पावर रेगुलेटर और महामारी से निपटने के लिए बनी संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट पर फौज से जुड़ा हुआ शख्स काबिज है।
पाकिस्तान में सिर्फ बदलता है चेहरा
सवाल यह है कि महत्वपूर्ण संस्थानों पर फौजी नियुत्तियों का मतलब क्या है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबित पाकिस्तान में घरेलू सामानों के बढ़ते दामों, कमजोर होती अर्थव्यवस्था, इमरान खान के करीबियों के खिलाफ भ्रष्टाचार से मामलों में कसता हुआ शिकंजा एक बड़ी वजह है। जानकार भी बताते हैं कि किस तरह से तहरीक-ए इंसाफ के सत्ता में आने के पीछे पाक सेना ने मदद की थी। क्योंकि उस समय सेना के जनरलों को लगने लगा था कि पीएमएल-एन या पीपीपी उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे।
नया पाकिस्तान सिर्फ किताबों में
कुछ जानकार कहते हैं कि इसमें न तो कुछ नया है और न तो चौंकने वाली बात है। पाकिस्तान के 70 साल के इतिहास में सरकार में सेना की भूमिका स्पष्ट रही है। कभी सेना ने सीधे सत्ता पर कब्जा किया या तो अपने इशारे पर सरकार बनवाई। 2018 में पाकिस्तान की सत्ता पर जब वो काबिज हुए तो उन्होंने भी एक नारा दिया नया पाकिस्तान का। लेकिन वो फिलहार नारों तक ही सीमित रह गया है। बदलते हुए पाकिस्तान का चेहरा किताबों के पन्नों में कहीं खो गया है। इमराश के देश के सभी हिस्सों की तस्वीर कमोबेश एक जैसी है। लोगों को उम्मीद थी कि बुनियादी सुविधाओं का विस्तार होगा। भारत के साथ रिश्ते सुधरेंगे। लेकिन पुलवामा और बालाकोट ने पाकिस्तान की साख को मिट्टी में मिला दी।