Sri Lanka Crisis: आखिरकार आम लोगों के दबाव के आगे श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे झुक गए हैं। और उन्होंने सिंगापुर से ई-मेल के जरिए इस्तीफा सौंप दिया है। गोटबाया का इस्तीफे श्रीलंका के इतिहास की बेहद अहम घटना है। वह पहले राष्ट्रपति हैं जिन्हें जनता के दबाव में आकर इस्तीफा देना पड़ा है। इस इस्तीफे के साथ ही मार्च में शुरु हुई जन क्रांति अपने उस लक्ष्य को पाने में सफल रही है, जिसमें वह राजपक्षे परिवार से छुटकारा पाना चाहती थी। दावा है कि श्रीलंका में एक हफ्ते में नए राष्ट्रपति शपथ लेंगे।
इस जनक्रांति की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि आर्थिक बदहाली से परेशान श्रीलंका के आम लोग पूरी तरह से एकजुट हो गए। और चाहे सिंहली हो या फिर तमिल या मुस्लिम सभी का एक ही लक्ष्य था कि राजपक्षे परिवार की सत्ता को उखाड़ फेंका जाय। अब जब यह लक्ष्य पूरा हो गया है तो क्या एकजुट श्रीलंका में नया मूड दिखेगा और क्या श्रीलंका में 35 साल पुराना वह संविधान संशोधन पूरी तरह से लागू हो पाएगा, जो नृजातियों (Ethnic) में बंटे श्रीलंका में तमिलों लोगों को उनका संवैधानिक अधिकार देता है। 1987 में किए गए 13 वें संविधान संशोधन को अमल में लाने के पीछे भारत और श्रीलंका के बीच हुए वह शांति समझौता है, जिससे तमिलों को श्रीलंका में अहम संवैधानिक अधिकार मिलते हैं।
क्या है 13 वां संविधान संशोधन
असल में यह संविधान संशोधन भारत और श्रीलंका के बीच हुए शांति समझौते का हिस्सा है। इसके तहत श्रीलंका में 13 वां संविधान संशोधन किया गया। इसके जरिए श्रीलंका के नौ प्रांतों में काउंसिल को सत्ता में साझीदार बनाने की बात कही गई है । जिसका उद्देश्य श्रीलंका में तमिलों और सिंहलियों के बीच के संघर्ष को रोकना था। संविधान संशोधन के जरिए प्रांतीय परिषद बनाने की बात थी ताकि सत्ता का विकेंद्रीकरण किया जा सके। इसके पहले 1987 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन श्रीलंकाई राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के बीच शांति समझौता हुआ था। उस वक्त श्रीलंका में सेना लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) के बीच गृहयुद्ध जैसी स्थिति थी जिसमें एक अलग देश बनाने की मांग की जा रही थी।
शांति समझौते के जरिए तमिल बहुल इलाकों में सत्ता के बंटवारे का शांतिपूर्ण तरीका खोजना था। इसी के आधार पर श्रीलंका के संविधान में 13वां संशोधन करने और 1987 के प्रांतीय परिषद अधिनियम को सक्षम बनाने की बात कही गई थी। जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, आवास, भूमि और पुलिस जैसे अधिकारों का विंकेंद्रीकरण करना था। लेकिन समझौते के 35 साल पूरा होने के बाद भी यह समझौता अभी तक लागू नहीं हो पाया है। और इसीलिए श्रीलंका में तमिल जनप्रतिनिधि समझौते को लागू करने के लिए भारत के हस्तक्षेप की मांग करते रहते हैं। और भारत भी श्रीलंका सरकार को इसे लागू करने को कहता रहता है।
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श्रीलंका में सिंहलियों का प्रभाव
श्रीलंका की आबादी में सिंहली समुदाय की 74 फीसदी आबादी है और राजनीतिक रूप से अभी तक यही माना गया है कि वह 13वें संशोधन का विरोध करते हैं। ऐसे में श्रीलंका की सत्ता में मौजूद कोई भी सरकार, समझौते को पूरी तरह से लागू करने में हिचकती रही है। इसी रूख को देखते हुए तमिल नेता भारत सरकार से हस्तक्षेप की मांग करते रहे हैं। बीते जनवरी में तमिल नेशनल अलायंस के नेता आर सम्पंथन के नेतृत्व में सांसदों की एक टीम ने कोलंबो में भारतीय उच्चायुक्त से मुलाकात कर उन्हें पत्र सौंपा था। जिसमें श्रीलंका 13वें संशोधन को लागू करवाने में भारत की मदद का अनुरोध किया गया है।
जनक्रांति से उम्मीदें बढ़ी
श्रीलंका में मौजूदा समय में जिस चीज ने सबकों एक सूत्र में पिरो रखा है, वह आर्थिक बदहाली है। फिर चाहे सिंहली हो या फिर तमिल या कोई और समुदाय, हर वर्ग महंगाई, जरूरी वस्तुओं की किल्लत, बिजली कटौती आदि से परेशान है। ऐसे में यही एकजुटता इस बात की उम्मीद बढ़ाती है कि नई सरकार सभी के लिए जवाबदेह होगी और आर्थिक बदहाली से निकलाने की राह में उसे सभी समुदाय के समर्थन की जरूरत होगी। इसे देखते हुए श्रीलंका में नए बदलाव भी दिख सकते हैं।