नई दिल्ली : अफगानिस्तान से विदेशी सेना वापस होने लगी है। अमेरिका ने कहा है कि 11 सितंबर तक उसकी सेना की अफगानिस्तान से वापसी हो जाएगी। करीब दो दशकों तक आतंकवाद एवं तालिबान से लोहा लेने वाला अमेरिका और नाटो सेना की वापसी के बाद इस देश के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जाने लगी हैं। विशेष रूप से तब जब तालिबान बेहद आक्रामक हो गया है और उसने उत्तरी इलाकों में हमले करते हुए 50 से ज्यादा जिलों पर अपना नियंत्रण कर लिया है। जानकार मानते हैं कि अफगानिस्तान से विदेशी सेना की वापसी के बाद तालिबान एक बार फिर अपना पुराना इतिहास दोहरा सकता है।
50 से अधिक जिलों पर तालिबान का कब्जा
तालिबान अपना इरादा जाहिर करने लगा है। मीडिया रिपोर्टों पर अगर यकीन करें तो उसने हाल के दिनों में 370 जिलों में से 50 से अधिक जिलों पर अपना कब्जा कर लिया है और वह अपना दायरा बढ़ा रहा है। वह आने वाले दिनों में प्रांतीय राजधानियों पर नियंत्रण कर सकता है। जाहिर है कि अफगान सरकार के लिए आने वाले समय काफी चुनौतीपूर्ण होने वाला है। तालिबान को काबू में रखने के लिए अफगानिस्तान की नागरिक सरकार को कूटनीतिक, सैन्य दोनों मोर्चों पर लड़ना होगा।
अपना दायरा बढ़ा रहा तालिबान
रॉयटर की रिपोर्ट में अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि हाल के दिनों में देश के उत्तरी प्रांतों फरयाब, बाल्ख एवं कुंदुज के बाहरी इलाकों में तालिबान की अफगान सुरक्षाबलों के साथ भारी लड़ाई हुई है। नए इलाकों पर कब्जा करते हुए तालिबान अपना दायरा बढ़ा रहा है।
अफगानिस्तान के हालात पर यूएन ने चिंता जताई
अफगानिस्तान में शांति को लेकर दुनिया के ताकतवर देश चिंतित हैं। तालिबान ने बातचीत जारी रखने में भरोसा जताया है लेकिन दोहा में शांति प्रक्रिया बहुत हद तक अटकी पड़ी है। अफगानिस्तान में जो ताजा हालात बने हैं उस पर संयुक्त राष्ट्र ने चिंता जताई है। यूएन ने सुरक्षा परिषद से सभी पक्षों को बातचीत की मेज पर लाने का अनुरोध किया है। अफगानिस्तान के लिए यूएन की माससचिव डी लॉयन्स ने कहा, 'अफगानिस्तान में संघर्ष बढ़ने से दूसरे देशों के लिए असुरक्षा बढ़ेगी।'
दक्षिणी हिस्से में काफी मजबूत है तालिबान
जानकारों का कहना है कि इस चरमपंथी संगठन का गढ़ देश का दक्षिण इलाका है। हेलमंद और कांधार प्रांत तालिबान का गढ़ है और यहां वह काफी मजबूत है। अब उसकी नजर देश के उत्तरी इलाकों पर हैं जिन पर वह अपना नियंत्रण पाना चाहता है। दशकों तक उसे उत्तरी इलाके में प्रतिरोध एवं विरोध का सामना करना पड़ा है। तालिबान को लगता है कि उत्तरी क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल कर लेने के बाद बाकी हिस्सों में उसे ज्यादा चुनौती नहीं मिलेगी।
महसूस की जा रही नॉर्दन अलायंस की जरूरत
अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए यहां नॉर्दन अलायंस जैसे एक सैन्य मोर्चे की जरूरत एक बार फिर महसूस की जाने लगी है। एक सैन्य मोर्चे के रूप में नॉर्दन अलायंस का गठन 1996 में हुआ। तालिबान के नियंत्रण से अफगानिस्तान को मुक्त कराने के लिए नॉर्दन अलायंस ने निर्णायक लड़ाई लड़ी।
इस नॉर्दन अलायंस को ईरान, रूस, तुर्की, भारत और ताजिकिस्तान का समर्थन मिला हुआ था। बाद में अमेरिकी सेना ने जब तालिबान पर हमला किया तो उसे नॉर्दन अलायंस का समर्थन एवं सहयोग मिला। साल 2001 में तालिबान को हराने के बाद नॉर्दन अलायंस को भंग कर दिया गया। इसके सदस्य बाद में अफगान सरकार के हिस्सा बन गए। जानकारों का कहना है कि तालिबान का मुकाबला करने के लिए नॉर्दन अलायंस जैसे एक सैन्य मोर्चे की जरूरत महसूस की जा रही है।