- 2007 में शानदार जीत के साथ बीएसपी ने सरकार बनाई थी
- 2012 के बाद से ग्राफ लगातार घटता गया
- 2022 के चुनाव को बीएसपी भी कई मायनों में अहम मान रही है।
2022 यूपी विधानसभा का चुनाव कई मायनों में अहम है। सम्मान और ठसक की लड़ाई सभी दलों की है। इस चुनाव में हर एक दल की अग्नि परीक्षा होनी है क्योंकि चुनावी नतीजे 2024 की लड़ाई का पृष्ठभूमि तैयार करेंगे।यहां पर हम बात करेंगे बीएसपी सुप्रीमो मायावती की। आज से 15 वर्ष पहले यानी 2007 के चुनाव में मायवती ने अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया था। उन्होंने बहुजन की जगह सर्वजन का नारा दिया और उसका फायदा भी उन्हें मिला। लेकिन 2017 और 2019 में बीएसपी सीटों की लड़ाई में कहीं पीछे छूट गई तो उसका निष्कर्ष भी साफ था कि जमीन पर अब बीएसपी का आधार कम हो रहा है।
15 जनवरी को मायावती ने कही थी खास बात
15 जनवरी को अपने जन्मदिन पर मायावती ने कहा कि उनकी नजर में समतामूलक समाज की स्थापना के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि हमें समाज के हर तबके को एक साथ लाना होगा तभी जाकर बीएसपी बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के सपने को पूरा कर सकेगी। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या मायवती के तेवर नरम पड़ चुके हैं या उन्हें समझ में आ रहा है कि 1980, 1990 के दौरान जिस नारे को वो बुलंद करती थीं वो अब काम नहीं आने वाला है।
बीएसपी के कोर वोटर्स में बिखराव !
अब बात करते हैं बीएसपी के कोर वोटर्स की। यूपी ंमें दलित समाज करीब 21 फीसद है जिसमें जाटव और गैर जाटव हैं। अगर 2007 और उससे पहले के चुनाव को देखें दलित समाज के मतों पर बीएसपी का एकक्षत्र राज्य होता था। 2012 में बीजेपी को समझ में आया कि वो गैर जाटव मतों को अपने पाले में कर सकती है और जमीन पर धीरे धीरे उसकी तरफ से कोशिश की गई और उसका असर 2014, 2017 और 2019 के चुनाव में नजर भी आया। इस तरह की तस्वीर बीएसपी के लिए चिंताजनक थी। दूसरी तरफ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी सीधे तौर पर चुनावी मैदान में नहीं थी। लेकिन जमीन पर बीएसपी के कोर वोटर्स को संदेश देने का काम किया जा रहा था कि जाटव लोग किसी के गुलाम नहीं हैं और उन्हें खुद के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए और उसका नतीजा नजर भी आने लगा।
ऐसी सूरत में सवाल यही है कि क्या मायावती यह समझ रही हैं कि 2022 की लड़ाई में उनके लिए कुछ खास नहीं है। जब इस तरह के हालात उनके मतदाताओं के सामने होंगे तो वो दल फायदा उठाएगा जो खुल कर बीएसपी के कोर वोटर्स के लिए बैटिंग करेगा। जानकार कहते हैं कि बीएसपी के कम सक्रिय होने से बीजेपी और एसपी दोनों के लिए परेशानी वाली बात है। किसी एक दल की तरफ इस समाज का एकतरफा झुकाव सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए पर्याप्त होगा।