- 6 जून 1981 को बिहार के खगड़िया में दुनिया का सबसे बड़ा रेल हादासा हुआ था।
- इस हादसे में 1000 से अधिक लोगों की मौत होने की बात बताई गई।
- उस ट्रेन में सवार व्यक्ति ने घटना की आपबीती सुनाई।
शाम का वक्त था बड़े अरमानों के साथ अपने घरों और गंतव्य स्थान की ओर समस्तीपुर, खगड़िया, मानसी बदलाघाट समेत कई स्टेशनों पर लोग पैसेंजेर ट्रेन पर सवार हुए। शादी विवाह का भी मौसम था ट्रेन खचाखचा भरी थी। डिब्बे के भीतर जगह नहीं होने की वजह से कुछ लोग गेट के पास किसी तरह जगह बनाकर खड़े थे। कुछ लोग लटके हुए थे, इतना ही नहीं ट्रेन की छतों पर भी बैठे थे। इंजन के आगे-पीछे भी खाली स्थानों पर बैठे थे, तब कोयले से चलने वाली इंजन हुआ करती थी जिसके चारों ओर ड्राइवर को आने जाने की जगह होती थी। यह कोई नई बात नहीं थी ऐसे नजारे ट्रेनों में रोज देखने को मिलते थे। तब वहां खगड़िया से सहरसा के बीच सफर करने के लिए एक मात्र साधन ट्रेन ही थी। लेकिन 6 जून 1981 को करीब एक हजार लोगों की जिंदगी का अंत होने वाला है किसी को पता नहीं था। छुक-छुक करती ट्रेन आगे बढ़ी। बदला स्टेशन से ट्रेन चली और एक किलोमीटर बाद बागमती नदी पर बने पुल पर ट्रेन चढ़ने वाली थी तभी तेज आंधी और बारिश आई। गर्मी भी काफी थी। इस ट्रेन के पिछले डब्बे में सफर कर रहे खगड़िया जिले में चौथम प्रखंड के भरपुरा गांव के निवासी प्रभु नारायण सिंह ने टाइम्स नाउ हिंदी से आपबीती बताई। इस घटना के 40 साल बीत गए हैं।
प्रभु नारायण सिंह बताते है कि मैं मानसी स्टेशन पर ट्रेन में चढ़ा था। मुझे धमारा घाट जाना था। शादियों का मौसम था। ट्रेन में बारातियों की संख्या काफी थी। मैं किसी तरह ट्रेन के पिछले डिब्बे में चढ़ पाया। उस वक्त मैं 20 साल का था। मैं गर्मी की वजह से गेट के पास ही खड़ा। मानसी से ट्रेन चलते ही हवा भी तेज चलने लगी थी। बारिश भी होने लगी थी। जब ट्रेन बदला स्टेशन से चली और बागमती नदी पर बने 51 नंबर पुल पर शनिवार के दिन शाम में पौने पांच बजे ट्रेन के डिब्बे पुल से नीचे गिरन लगे। पुल से नीचे गिरने वाला पहला डब्बा मेरा ही था। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। क्या हुआ। लेकिन काफी तेज हवा चल रही थी। जब तक कुछ समझता मैं पानी में था। मैं डिब्बे में गेट पर था हो सकता है इसलिए पानी में चला गया। मुझे तैरना आता था। तैरकर किनारे पहुंचा। ट्रेन के 9 डिब्बों में पांच डिब्बे पानी में समा गए थे। दो डिब्बे किनारे में गिरे हुए थे। दो डिब्बे इंजन के साथ पटरी पर थे। उन्होंने कहा कि कुछ लोग तैरते हुए दिख रहे थे। ज्यादातर लोग डूब चुके थे। मैं खुद को संभालते हुए ट्रेन के गिरे हुए डिब्बे पास पहुंचा। कुछ लोगों के बचाकर किनारे में लाया। धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा था। मेरा गांव वहां से तीन किलोमीटर दूर था। फिर मैं वहां अपने घर की ओर पैदल चल दिया। उन्होंने कहा कि उस घटना की जब भी याद आती है रूहकांप जाता है। लगता है नया जन्म हुआ।
हादसे के बाद घटना स्थल पर पहुंचे चौथम प्रखंड के लगमा निवासी शंभू सिंह बताते हैं कि मैं उस वक्त 14-15 साल का था। जिस दिन घटना घटी उसके दूसरे दिन सुबह वहां पहुंचा। क्योंकि शाम में घटना घटी थी। रात होने के वजह से वहां नहीं पहुंच पाया, मेरा गांव दो-तीन किलोमीटर दूर था। जब वहां पहुंचा लाशें बिछी हुई थीं। काफी संख्या में लोग इकट्ठा हो गए थे। सभी अपने परिजनों को तलाश कर रहे थे। चारों ओर रोने और बिलखने की आवाजें आ रही थीं। यह सब देखकर मेरा भी दिल बैठ गया था। किसने लोगों की मौत हुई यह बता नहीं सकता। लेकिन अधिकांश लोग की मौत हो चुकी थी।
घटना स्थल के पास के गांव बंगलिया के निवासी कैलाश प्रसाद सिंह बताते हैं कि घटना के दिन मैं अपने गांव में नहीं था। लेकिन खबर मिलते ही दूसरे दिन अपने गांव और घटना स्थल पर पहुंचा। उस समय संचार माध्यम रेडियो और अखबार ही हुआ करता था। इसलिए जानकारी धीरे-धीरे फैलती थी। उन्होंने कहा कि इस घटना हमारे कई जानने वालों की जान चली गई। यह घटना इतना भयावह थी कि इसका दर्द आज भी लोग महसूस करते हैं। उन्होंने कहा कि इस घटना का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी में घटना स्थल पर पहुंची थी। उस समय के हिसाब यह दुनिया की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना थी।