- नरेंद्र मोदी का पीएम उम्मीदवार बनना टर्निंग प्वाईंट साबित हुआ
- नीतीश कुमार को अपने सेक्यूलर छवि की चिंता थी
- महागठबंधन की वजह से साथ आए थे नीतीश-लालू यादव
साल 2012 का शुरुआती दौर था। केंद्र में यूपीए की सरकार थी और डॉक्टर मनमोहन सिंह उसके मुखिया थे। यूपीए में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। लिहाजा बेतहाशा महंगाई, भ्रष्टाचार का ठीकरा भी उसी के सर फोड़ा जा रहा था। देश भर में अपराध भी अपने चरम पर था। अन्ना आंदोलन की वजह से कांग्रेस पहले ही बैकफुट पर थी। दिसंबर 2012 में हुआ निर्भया रेप कांड यूपीए सरकार के ताबूत में आखिरी कील की तरह साबित हुआ। कांग्रेस चारों तरफ से घिरती नजर आ रही थी। बीजेपी सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक पूरी तरह से मोर्चा खोल चुकी थी। तत्कालीन गुजरात सीएम नरेंद्र मोदी भी लागातर कांग्रेस पर हमलावर थे।
उस दौरान बिहार में जेडीयू और बीजेपी गठबंधन की सरकार थी। नीतीश कुमार मूख्यमंत्री थे और शरद यादव जेडीयू के अध्यक्ष। बिहार सरकार में सबकुछ अच्छा चल रहा था। उधर मोदी लगातार पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में मजबूती से सामने आ रहे थे।
एक हिंदुवादी नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की छवी बहुत मजबूत थी। जैसे-जैसे मोदी आगे बढ़ते गए उन्हें पार्टी कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलता गया और लालकृष्ण आडवाणी रेस से बाहर होते गए। देश के साथ-साथ नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को भी ये बात समझ आने लगी थी कि नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के पीएम उम्मीदवार होंगे।
और सताने लगी नीतीश को छवि की चिंता
नीतीश कुमार की छवि एक सेक्यूलर नेता की थी। पहले कार्यकाल से लेकर उनके दूसरे कार्यकाल तक बिहार की अल्पसंख्यक आबादी खासकर मुसलमानों ने दिल खोलकर जेडीयू को वोट दिया था। नीतीश किसी भी कीमत पर उस समर्थन को नहीं खोना चाहते थे।
लेकिन नेरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने राम मंदिर और मुस्लिम तुष्टिकरण को एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना दिया था। नीतीश कुमार को यह बात खलने लगी। दबी जुबान में शुरू हुआ मोदी विरोध 15 अप्रैल 2013 को खुलकर सामने आ गया। किसे पता था कि इस दिन दिया गया एक बयान 17 साल की दोस्ती पर ग्रहण लगा देगा।
15 अप्रैल 2013 और नीतीश का धर्मनिरपेक्षता का राग
15 अप्रैल 2013 को नीतीश कुमार ने धर्मनिरपेक्षता का सहारा लेते हुए नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा। फिर क्या था पूरी बिहार बीजेपी नीतीश पर टूट पड़ी। बिहार बीजेपी के नेता आनन-फानन में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मिलने दिल्ली पहुंचे।
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नीतीश के बयान पर सभी नेताओं ने राजनाथ सिंह के सामने अपना विरोध दर्ज कराया। राजनाथ से मिलने के बाद गिरिराज सिंह ने कहा था "मोदी का अपमान बीजेपी का अपमान है। अपमानित होकर गधबंधन में रहने का कोई मतलब नहीं"। साथ ही गिरिराज सिंह ने पीएम पद पर नरेंद्र मोदी के दावेदारी के संकेत भी दे दिए थे। उसी दिन जेडीयू नेता देवेश चंद्र ठाकुर ने कहा था कि पीएम प्रत्याशी धर्मनिरपेक्ष छवी का होना चाहिए और जेडीयू सिद्धांतों के साथ कोई समझौता नहीं करेगी। इसी दिन तय हो गया था कि बिहार में एनडीए गठबंधन की उम्र अब ज्यादा दिन नहीं बची है।
17 साल के रिश्ते पर भारी 17 जून का दिन
17 जून 2013 के जेडीयू ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। मीडिया के गलियारे में गठबंधन टूटने की चर्चा भी आम थी। नीतीश कुमार और शरद यादव मीडिया के सामने आए और 17 साल के भरोसे के टूटने का ऐलान किया। तब शरद याद ने कहा था कि NDA अपने एजेंडे से भटक गया है और हालात गठबंधन में रहने लायक नहीं थे। नीतीश कुमार ने बयान दिया था कि हालात खराब हो गए थे और गठबंधन को नहीं बचाया जा सका। नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए नीतीश ने कहा था 'हमारी उपलब्धियों से लोगों को परेशानी होने लगी थी। एक बाहरी आदमी के इशारे पर हमारे काम में परेशानियां पैदा की जा रही थीं। बीजेपी विधायक बैठक में शामिल नहीं होते थे मजबूरी में ये फैसला लिया।'
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यह तकरार बढ़ती गई। बयानबाजी का दौर चलता रहा। 13 सिंतबर 2013 के दिन भारत की राजनीति का वो दिन था जिसने इस देश के राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदल दी। बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित किया। पूरे गाजे-बाजे के साथ बीजेपी ने इसका ऐलान किया।
बीजेपी ने नीतीश कुमार के होश उड़ा दिए
16 मई 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम की घोषणा हुई। बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ चुकी थी। लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ी खबर यह थी के नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के खाते में केवल 2 लोकसभा सीट, लालू यादव की आरजेडी को 4 और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए 31 सीट जीतने में कामयाब हुई थी। इसका साफ मतलब था कि एनडीए से अलग होने का नीतीश कुमार का फैसला बहुत बड़ी गलती साबित हुआ था। नीतीश कुमार को अपने और पार्टी के भविष्य की चिंता सताने लगी थी। यह साफ था कि उन पर कुछ बड़ा फैसला लेने का दबाव बढ़ गया था।
जीतन राम मांझी की लगी 'लॉटरी'
18 मई से लेकर 20 मई 2014 तक का दिन बिहार की राजनीति में काफी उथल-पुथल भरा रहा। नीतीश कुमार के सीएम पद से इस्तीफे की खबर आने लगी थी। आरजेडी से गठबंधन की बात जोर पकड़ने लगी। मोदी लहर में नीतीश एक सीएम के तौर पर पहला शिकार थे। एनडीए से अलग होने पर जेडीयू के अंदर ही नीतीश कुमार का विरोध शुरु हो गया था। जेडीयू का एक गुट बिहार में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने की जुगत में लगा था। नीतीश इस बात को भाँप गए और फिर उन्होंने वो किया जिसकी उनके विरोधियों को उम्मीद नहीं थी। नीतीश ने सीएम पद से इस्तीफा दिया और अपनी सरकार में कल्याण मंत्री रहे महादलित जीतन राम मांँझी को मुख्यमंत्री बना दिया। नीतीश ने यह राजनीतिक फैसला संगठन के साथ-साथ महागठबंधन पर काम करने के लिए लिया था। वो इस समय का इस्तेमाल अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने के लिए करना चाहते थे।
20 साल से बिछड़े जेपी के दो शिष्यों के मिलने का वक्त आ गया था
लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के ठीक एक महीने बाद नीतीश कुमार लालू यादव से मिलने पहुंचे। बहाना था राज्यसभा चुनाव के लिए समर्थन मांगना। एनडीए से अलग होने के बाद राजनीतिक विश्लेषकों को यह लगने लगा था कि नीतीश आरजेडी के करीब जाएंगे। उसकी सबसे बड़ी वजह थी कि दोनों ही पार्टी एक आंदोलन की देन थी। दोनों ही पार्टी के सुप्रीम जेपी आंदोलन से चमके थे। राजनीतिक विचारधारा में भी कुछ खास फर्क नहीं था। इस बैठक में 20 साल बाद लालू और नीतीश गले मिले। इस मुलाकात ने बिहार में महागठबंधन की नींव रखी।
इस मुलाकात और महागठबंधन के ऐलान पर कभी लालू यादव के करीबी रहे रामकृपाल यादव ने कहा था कि यह गठबंधन टिक नहीं पाएगा। 8 जून 2015 को रामकृपाल ने आरजेडी के कोर वोटर मतलब यादवों पर निशाना साधते हुए कहा था कि 'लोग पीठ की मार तो बरदाश्त कर लेते हैं लेकिन पेट की मार नहीं कर पाते।' उनका इशारा था बिहार में सरकारी नौकरियों में यादवों की अनदेखी। लेकिन उस वक्त के लिए रामकृपाल की भविष्यवाणी गलत साबित हुई। 6 मई 2015 को दिल्ली में नीतीश कुमार ने लालू यादव से मुलाकात की। बैठक के बाद जेडीयू नेता केसी त्यागी ने कहा था 'बैठक शानदार रही।'
बिहार में हुआ 'महागठबंधन' का ऐलान
12 अगस्त 2015 को महागठबंधन की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई गई। इस प्रेसवार्ता में जेडीयू की तरफ से नीतीश, आरजेडी से लालू यादव और कांग्रेस की तरफ से सीपी जोशी शामिल हुए। बिहार विधानसभा चुनाव में सीट शेयरिंग का ऐलान हुआ। आरजेडी के खाते में 100, जेडीयू के पास 100 और कांग्रेस को 40 सीटें मिलीं। हालांकि नीतीश कुमार को सीट शेयरिंग में नुकसान जरूर हुआ। लेकिन वो किसी भी कीमत पर बिहार में मोदी लहर को रोकना चाहते थे। नीतीश इस मकसद में कामयाब भी हुए और महागठबंधन ने चुनाव में बंपर जीत दर्ज की।