पंकज रामेन्दु। कानपुर बराज ऑफिस में बैठे अधिकारी के पास फोन आया - सर वो।। सर वो दो वीआईपी फंसे हैं। फोन ने पूरे ऑफिस में अफरा तफरी का माहौल बना दिया था। दो लोग आपस में बात करने में लगे हुए थे, एक ने दूसरे के कान के पास आकर कहा, दो वीआईपी फंसे हैं, ख़बर बाहर नहीं निकलना चाहिए। इसके साथ ही कहने वाला और बोलने वाला दोनों ही हल्के से मुस्कुरा दिए। ऑफिस के भीतर ही कुछ फोन और बजे, फिर बैराज के एक गेट को खोला गया और बराज में अटकी दो लाशें आगे बह गईं। लाश के बहने की खबर पाते ही अफसर और उनके चमचे एक ही बात दोहरा रहे थे - चलो भई। हमारी सरदर्दी खत्म, अब आगे वाले जानें। बराज में लाशों का फंसना आम बात है, वैसे तो नियम ये है कि उन्हें निकालकर जलाना चाहिए। लेकिन करें कौन, बैराज में अक्सर फंसने वाली इन्हीं लाशों को कूट भाषा में – वीआईपी - कहते हैं।
‘लेकिन सर आगे जवाब तो देना होगा,’ अर्दली ने पूछा। उसकी बात का किसी ने कोई जवाब नहीं दिया, हां टाइपराइटर पर ज़रूर जवाब तैयार हो रहा है। ‘दो लाशें फंसी थी, उन्हें निकालने के लिए चैनल खुलवाए गए लेकिन तेज धारा की वजह से दोनों लाशें बह कर आगे निकल गई, बिठूर में सूचना दे दी गई है कि प्रशासन नज़र रखे ताकि लोग बिना जलाए लाशों को गंगा में न बहाए।’ बराज वाले जानते हैं और शायद पूरा कानपुर भी कि कानपुर की गंगा में तेज धारा कब से होने लग गई?
ये अंश 2013 में प्रकाशित किताब - दर दर गंगे - से लिए गए हैं यानि आज से 8 साल पहले। ये बात इसलिए बता रहे हैं क्योंकि कुछ दिनों पहले फिर से गंगा में लाशें तैरती नज़र आईं हैं। जब ये किताब लिखी गई थी तब ये कोई नई खोज नहीं थी, बल्कि इस किताब के लिखे जाने के पहले से लाशों के बहाने का सिलसिला जारी था।
बिहार और उत्तर प्रदेश में गंगा में उफनती लाशों को लेकर वहां का प्रशासन यही बात कह रहा है कि लाश पीछे से बह कर आई हैं। बक्सर में मिली 71 लाशों के बाद स्थानीय प्रशासन ने इन लाशों को उत्तर प्रदेश का बता दिया। कोरोना काल में जब लोग अपनो की लाशें ही नहीं ले जा रहे हैं ऐसे में कोई प्रदेश क्यों भला किसी शव की ज़िम्मेदारी लेने लगा। दरअसल, गंगा में बहती लाशों के पीछे कई गणित काम करते हैं, इसके लिए हम पौराणिक कथाओं से बात समझते हैं, और उसे भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं।
(तस्वीर- प्रयागराज और आस पास के स्थल, 5 जनवरी 2021)
सगर ने सबसे पहले बहाए थे शव
पुराणों में राजा सगर की कथा तो आपने सुनी ही होगी, कि किस तरह अपने 60 हज़ार पुत्रों के मारे जाने के बाद उन्हें मुक्ति दिलाने की उनके पोते भगीरथ ने तपस्या की और गंगा धरती पर अवतरित हुई और इस तरह से सगर के पुत्रों को मुक्ति मिली। इस कहानी को आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि प्राचीन काल में राजा के लिए उसकी प्रजा पुत्र समान ही होती थी। तो हो सकता है कि सगर राजा की प्रजा किसी महामारी की शिकार हुई और इस तरह से उनको तारने के लिए गंगा का सहारा लिया गया। इस कहानी में गंगा के वेग की बात भी कही जाती है, जिसे रोकने के लिए शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में बांध लिया था। अगर आप गंगोत्री जाएंगे तो आपको पता चलेगा कि यहां मौजद शिवालिक की पहाड़ियां ही दरअसल शिव थे और इन पहाड़ियों में एक विशेष तरह की घास पाई जाती है जो जितनी ऊपर दिखती है उतनी गहरी होती है, ये घास पहाड़ों की मिट्टी को धसकने नहीं देती है और नदी के वेग को भी संभालती हैं। तो जिस शिव की हम बात करते हैं वो शायद हिमालय के इन पहाडों का ही रूपक है और यहां पाई जाने वाली घास उनकी जटाएं।
हमें कहानियां अच्छी लगती हैं
भारत को जनश्रुतियों का देश कहा जाता है, हमें कहानियां सुनना अच्छा लगता है, इसलिए हमने सगर के पुत्रों की कहानी पर विश्वास किया, हमने रूपक को माना और हम शिव को पूजने लगे। इस दौरान गंगा भी अपने बहाव में बहती रही और सगर के पुत्रों की तरह गंगा के किनारे बसने वाले अपने संबंधियों को उसमें बहाते रहे। कहानियां तो किताबों में छप कर अमर हो सकती है, लेकिन नदी को किताबों में संभाला नहीं जाता है। यही गंगा के साथ हुआ, गंगा को मुहाने पर ही रोक दिया गया। जिस गंगा के वेग को संभालना मुश्किल था उसमें बहाव ही नहीं बचा।
परंपरा तो चलती रहती है
ऊपर हमने जिस कानपुर की कहानी का अंश पढ़ा था उससे जब हम गंगा के रास्ते प्रयागराज की तरफ बढ़ते हैं तो एक शहर आता है, कड़ा मनिकपुर। गंगा में बहती लाशों के गणित को समझने के लिए कड़ा मनिकपुर में ठहरना ज़रूरी है। तो किताब के अंशों से समझते हैं फिर वर्तमान पर आते हैं। गंगा के निकट उभरे रेगिस्तान में पंडा मनोज द्विवेदी के मंत्रोच्चार के बीच कुछ लोग रेत में गड्ढ़ा खोद रहे हैं। लल्लू माली के पिता की मौत किसी लंबी बीमारी के बाद हो गई है, उसी के शव को अंतिम संस्कार के रूप में गाड़ा जा रहा है। एक हिंदू की मौत पर उसे दफनाने की तैयारी हिंदू दाह संस्कार परंपरा पर गंभीर सवाल उठी रही थी।
(तस्वीर- प्रयागराज और आस पास के स्थल, 5 जनवरी 2021)
'अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम, संत मलूका कह गए सबके दाता राम' - इन पंक्तियों को कहने वाले संत मलूका और शीतला धाम से पहचाने जाने वाले मनिकपुर पिछले दो दशक से गंगा के रेगिस्तान के रूप में पहचान बना रहा है। यूं कहिए की गंगा के भयावह भविष्य के संकेत यहीं मिलते हैं। कड़ा मनिकपुर में पंडा मनोज द्विवेदी का परिवार कई दशक पहले आया था। उनके परदादा रामनारायण द्विवेदी काशी से यहां आए थे और शीतला माता की सेवा में लग गए। मनोज द्विवेदी परिवार की चौथी पीढ़ी से हैं। चालीस बसंत देख चुके मनोज ने अपनी आंखो के यहां रेगिस्तान बनते देखा है। दस साल भी नहीं हुए गंगा यहां राजा जयसिंह के किले की दीवारों को छू कर बहती थी। आज यहां दिखने वाले रेत के सैंकड़ों टीले कब्रिस्तान का अहसास पैदा करते हैं।
लेकिन सवाल ये था कि आखिर ऐसी क्या मजबूरी है जो एक हिंदू के शव को दफनाना पड़ रहा है। ज़ाहिर है इस बात का कोई धार्मिक आधार तो नहीं हो सकता है। दरअसल एक हिंदू के शव को दफनाने का कारण राजा सगर से लेकर लोगों की गरीबी और बदलते पर्यावरण में छिपा है। पिछले दो दशकों में जिस तेजी से रेगिस्तान बढ़ा उसी तेजी से जंगल खत्म हुए हैं। एक शव को जलाने के लिए दो से तीन सौ किलो लकड़ी की ज़रूरत होती है। गरीब के पास चूल्हा जलाने भर की तो लकड़ी है नहीं, दाह संस्कार कैसे हो?
कुछ समय पहले तक आसपास के गांव के लोग अपने प्रियजनों के शरीर को गंगा में बहाकर ही मोक्ष देते थे पर टिहरी के बाद तो जैसे सब थम सा गया है। थमी गंगा का असर आगे विस्तार लेता गया जिसकी वजह है कि इस क्षेत्र में शवों को दफनाना आम बात है। यहां रहने वाले बाशिंदे अपने संबंधियों को दफना खुद को यह मना लेते हैं कि जब बाढ़ आएगी तो गंगा माई भागीरथ के पूर्वजों की तरह इन अभागों का भी उद्धार कर देगी।
अब क्यों उफन रहे हैं गंगा में शव
सवाल ये उठता है कि जब ये परंपरा दो दशक से चल रही है तो आज शव क्यों उफन रहे हैं। दरअसल इसके पीछे कई तथ्य एक साथ काम कर रहे हैं। गंगा लगातार सूखती जा रही है और बिहार में तो गाद इतनी बड़ी समस्या बन कर उभरी है कि खुद वहां के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने इसे बिहार की कृषि के लिए खतरा बताया है। दूसरा महामारी के दौरान प्रधानमंत्री के कथन आपदा में अवसर को कई लोगों ने गंभीरता से ले लिया है। और भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच गया है। दरअसल कोरोना के फैलने की वजह से लोगों के मरने की संख्या सरकारी आंकड़ों से कई गुना ज्यादा है और श्मशान घाट में लोगों को दाह संस्कार के लिए जगह नहीं मिल रही है, लकड़ी की उपलब्धता भी लगातार घटती जा रही है। ऐसे में दाह संस्कार के लिए मुंहमांगे दाम वसूले जा रहे हैं।
दूसरी तरफ अस्पतालों में होने वाली मौत के बाद शवों के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन और नगर निगम की होती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशासन ने अपनी ज़िम्मेदारियों को गंगा में बहा दिया है। कुल मिलाकर जब देश के हाकिम जो खुद को गंगापुत्र बता कर चुनाव में अवतरित हुए थे वो खुद ही भगीरथ की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं, बल्कि गंगा के प्रवाह को टीलों में बदलने पर उतारू हैं तो ऐसे में सगर के पुत्रों का सड़ना तो तय है।
(डिस्क्लेमर-लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता। लेख में किताब के अंश पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘दर दर गंगे ’ से लिए गए हैं, जिसके लेखक पंकज रामेन्दु और अभय मिश्र हैं।)