शिवपाल यादव की वैसे तो अपनी पार्टी है लेकिन विधायक वो समाजवादी पार्टी के टिकट पर हैं। विधानसभा चुनाव से पहले इस बात की कवायद की गई कि एसपी की मजबूती के लिए अखिलेश यादव और शिवपाल यादव दोनों को एक होना चाहिए। शिवपाल यादव, सपा के साथ आए। लेकिन उनके हाथ पहली निराशा तब लगी जब अखिलेश यादव ने महज उन्हें एक सीट दी और सपा के टिकट पर ही चुनावी समर में उतरने का फैसला किया। चुनावी नतीजों के बाद सपा विपक्ष हैं और जब पार्टी अपने विधायक दल की बैठक की तो शिवपाल यादव नाराज हुए। लेकिन सपा ने कहा कि वो पार्टी के हिस्सा तो है नहीं। घटक दलों की बैठक बाद में बुलाई जाएगी। लेकिन यह बात शिवपाल यादव को नागवार गुजरी और यह कहा जाने लगा कि वो अलग रास्ता तय कर सकते हैं।
111 विधायकों में से एक हूं
शिवपाल यादव ने कभी नहीं कहा कि वो किसी खास दल का हिस्सा बनने जा रहे हैं लेकिन उनके कुछ ट्वीट ऐसे थे जिसका मतलब निकाला गया कि शायद वो बीजेपी के लिए सहानुभूति रख रहे हैं। मामला यहां से खराब होना शुरू हुआ जब अखिलेश यादव ने कहा कि जिन लोगों की बीजेपी से सहानुभूति हैं उन्हें निकाला जाएगा। इस बयान को शिवपाल यादव ने बचकाना बताया। बुधवार को उन्होंवे अखिलेश पर निशाना साधते हुए कहा कि बीजेपी में भेजना है तो निकाल दो। इसके साथ बोले कियह एक गैर जिम्मेदाराना और बचकाना बयान है। मैं हाल के विधानसभा चुनाव में जीते सपा के 111 विधायकों में से एक हूं। अगर वह मुझे बीजेपी में भेजना चाहते हैं तो मुझे पार्टी से निकाल दें।
क्या कहते हैं जानकार
जानकारों का कहना है कि राजनीतिक दो तरह की होती है, एक तो जनता के बीच रहकर धरातल पर लड़ी जाती है। दूसरी परसेप्शन की लड़ाई होती है। अगर आप यूपी विधानसभा के नतीजों को देखें को तो उसमें कई तरह के संदेश छिपे हुए हैं। पहला संदेश तो यही है कि बीजेपी को अपने सामाजिक आधार को मजबूत करने के बारे में दोबारा सोचना होगा। दूसरा संदेश यह है कि समाजवादी पार्टी को अपनी तैयारी को और पुख्ता करना होगा। सवाल यह है कि क्या समाजवादी पार्टी आजम खान और शिवपाल की अनदेखी कहीं उन्हें भारी तो नहीं पड़ेगी। दरअसल इस सवाल का जवाब भविष्य में मिलेगा। लेकिन जिस तरह से आजम खान से शिवपाल ने मुलाकात की और पीड़ा बयां कि उससे साफ है कि अगर समाजवादी पार्टी के एमवाई समीकरण में सेंध लगी तो अखिलेश यादव की राह आसान नहीं होगी।
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