- भारत और चीन 1962 के युद्ध के बाद सीमा पर खूनी संघर्ष टालने में अमूमन कामयाब रहे
- सीमा पर दोनों देशों के सैनिक आपस में गुत्थम-गुत्था होते रहे हैं, पर गोलीबारी से बचते रहे हैं
- गलवान में हालिया संघर्ष के बाद यह आम राय भी बनने लगी है कि चीन के साथ बातचीत बेकार है
नई दिल्ली : लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति अप्रैल के आखिर से ही बनी हुई थी। मई में भी दोनों देशों के सैनिकों के बीच कई बार हिंसक झड़पें हुईं। इसे 2017 में डोकलाम में हुए विवाद के बाद भारत-चीन के बीच का सबसे बड़ा सैन्य टकराव बताया गया, जब दोनों देशों की सेना दो महीने से भी अधिक समय तक आमने-सामने रही थी। लेकिन किसी को शायद ही अंदाजा था कि पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर उपजे तनाव का नतीजा इस तरह के हिंसक संघर्ष के रूप में सामने आएगा, जिसमें भारतीय सेना के 20 जवान शहीद हो जाएंगे। हालांकि इस खूनी संघर्ष में चीनी पक्ष को भी नुकसान उठाना पड़ा, जिसका अंदाजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उस बात से भी लगाया जा सकता है कि वे मरते-मरते मरे हैं। यानी भारतीय सैनिकों ने भी चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) को बड़ा नुकसान पहुंचाया।
चीन ने पार की बर्बरता की हदें
इस संघर्ष में चीन के कितने सैनिक हताहत हुए हैं, इसकी आधिकारिक पुष्टि चीन की तरफ से नहीं की गई है। चीन में सरकार नियंत्रित मीडिया इस बारे में कुछ भी बताने से अब तक बचती रही है, लेकिन कई भारतीय मीडिया रिपोर्ट्स में यह दावा किया गया है कि चीन के 40 से अधिक सैनिक इस खूनी संघर्ष में मारे गए। एलएसी पर जिस तरीके से यह संघर्ष हुआ, वह आपसी संघर्ष में क्रूरता व 'बर्बरता' का परिचय भी देता है। सोशल मीडिया पर एक तस्वीर तेजी से वायरल हो रही है, जिसमें कहा जा रहा है कि गलवान घाटी में 15-16 जून को भारत और चीन के सैनिकों की झड़प हुई तो चीनी पक्ष ने कील लगे लोहे की रॉड का इस्तेमाल कर भारतीय सैनिकों को निशाना बनाया। इसमें पत्थर व डंडों का इस्तेमाल किए जाने की बात भी सामने आ रही है। रक्षा मामलों के जानकार अजय शुक्ल ने भी अपने ट्विटर हैंडल से कील लगे लोहे के रॉड तस्वीर शेयर की है और इसे 'बर्बर' कार्रवाई करार देते हुए इसकी निंदा की है। हालांकि इस पर न तो चीन और न ही भारत की तरफ से कोई आधिकारिक बयान आया है।
सैनिकों ने क्यों नहीं उठाए हथियार?
सवाल यह भी उठ रहे हैं कि भारतीय सैनिकों पर जब हमला हुआ तो क्या वे निहत्थे थे? कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह सवाल उठाया और यह भी कहा कि इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए कि एलएसी पर तनाव और कई सैन्य झड़पों के बावजूद आखिर सैनिकों को निहत्थे दुश्मनों से लड़ने के लिए क्यों भेजा गया? विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ऐसे सवालों का जवाब देते हुए साफ किया है कि गलवान घाटी में जब भारत और चीन के सैनिक भिड़े तो भारतीय जवानों के पास भी हथियार थे, लेकिन पिछले समझौतों के कारण अब तक यह चलन में रहा है कि सैनिक हथियार का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इस संबंध में उन्होंने भारत और चीन के बीच 1996 और 2005 के समझौतों का भी जिक्र किया और कहा कि विवादित क्षेत्र में तनाव और न बढ़े, इसके लिए वहां किसी भी हथियार ले जाने की मनाही है, लेकिन सीमा पर तैनात सैन्य टुकड़ियां, खासकर जब अपनी चौकी छोड़ती हैं तो वे अपने साथ हथियार भी लेकर जाती हैं और 15 जून की रात भी ऐसा ही हुआ। यानी गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ संघर्ष के दौरान भारतीय सैनिकों के पास भी हथियार थे और पूर्व के समझौतों के कारण उन्होंने इसका इस्तेमाल नहीं किया।
क्या फेल हो गई वुहान और मामल्लापुरम की वार्ता?
भारत-चीन हालिया टकराव के बारे में यह बात गौर करने वाली है कि यह खूनी संघर्ष ऐसे समय में हुआ है, जबकि दोनों देश सैन्य स्तरों पर और कूटनीतिक माध्यम से भी तनाव को दूर करने के लिए लगातार संपर्क में थे। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि दोनों देशों के रिश्तों में अब आगे की राह क्या होगी? आपसी रिश्तों के सामाान्य होने की अब कितनी गुंजाइश बची है? चीन की जिद और आक्रामक तेवर को देखते हुए यह फिलहाल उतना आसान नहीं मालूम पड़ता है। चीनी पक्ष जिस तरह लगातार भारत के खिलाफ आरोपों की बौछार कर रहा है, उसे देखते हुए यह और भी मुश्किल जान पड़ता है। हालांकि बातचीत से हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है, लेकिन इसके लिए ईमानदार पहल भी उतनी ही जरूरी है। पहले वुहान और फिर मामल्लापुरम में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अनौपचारिक शिखर वार्ताओं से आपसी रिश्तों में गर्माहट आने की उम्मीद जगी थी, लेकिन चीन की चालाकी व चालबाजी रिश्तों के सामान्य होने में बाधक बन रही है। मौजूदा हालात में यह आम राय बनने लगी है कि चीन के साथ बातचीत बेकार है, क्योंकि उसकी कथनी व करनी में बड़ा फर्क है।
भारत को अपनाना होगा आक्रामक रुख
वर्तमान में जो हालात हैं, उसमें भारत को किसी भी तरह के दबाव में आए बगैर आक्रामक रुख अपनाने की जरूरत है। कोरोना वायरस संक्रमण के कारण चीन के खिलाफ पहले ही वैश्विक परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं, जिसका लाभ भारत कूटनीतिक स्तर पर उठा सकता है। अगर भारत ने इस वक्त सख्ती नहीं की तो भविष्य में उसे नेपाल और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी मुल्कों से डील करने में भी परेशानी होगी। पाकिस्तान के साथ रिश्ते जहां पहले से ही तनावपूर्ण हैं, वहीं नेपाल के साथ नए नक्शे को लेकर भी विवाद गहराता जा रहा है। इस संबंध में संविधान संशोधन विधेयक संसद से पारित होने के बाद नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने गुरुवार को इस पर हस्ताक्षर भी कर दिए हैं, जिसके बाद यह कानून की शक्ल ले चुका है। नेपाल ने अपने नए नक्शे में भारतीय राज्य उत्तराखंड के तीन क्षेत्रों लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को अपने क्षेत्र में दर्शाया है। भारत पहले ही इसे अमान्य और कृत्रिम विस्तार करार देते हुए खारिज कर चुका है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि नेपाल का यह कदम आपसी रिश्तों को प्रभावित करने वाला है।
काम आएगी चीन के खिलाफ वैश्विक लामबंदी
नेपाल के साथ का सीमा विवाद चीन के संदर्भ में भी अहम हो जाता है, जिसके बारे में माना जाता है कि काठमांडू को इस कदम के लिए बीजिंग ने ही उकसाया। नेपाल से सीमा विवाद और अब चीन के साथ हालिया हिंसक सैन्य टकराव के बीच भारत को फिलहाल कूटनीतिक स्तर पर अपना पक्ष मजबूत करने की जरूरत है। वैश्विक स्तर पर चीन के खिलाफ लामबंदी भारत के लिए मददगार साबित हो सकती है। इस क्रम में फ्रांस, ब्रिटेन सहित यूरोप के कई देशों और अमेरिका की चीन के प्रति नाराजगी का फायदा भारत उठा सकता है। साथ ही सैन्य स्तर पर भी प्रतिद्वंद्वी को कड़ा 'सबक' सिखाने की आवश्यकता है, ताकि हमारे सैन्य जवानों का मनोबल बरकरार रहे, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जान की बाजी लगाकर सरहद की सुरक्षा के लिए तैनात रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कह चुके हैं कि जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। उनकी इस बात के गहरे निहितार्थ हैं। हालांकि जमीनी स्तर पर भारत और चीन के रिश्ते अब कौन सा रुख लेते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
(डिस्क्लेमर: प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है)