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क्या राहुल गांधी के लिए एक मनमोहन सिंह ढूंढने का वक्त आ गया है ?

Updated Nov 19, 2020 | 22:23 IST

बराक ओबामा ने अपनी किताब ए प्रॉमिस्ड लैंड में कांग्रेस के साथ साथ राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह पर टिप्पणी की है जो इस समय चर्चा के केंद्र में है।

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राहुल गांधी के बारे में बराक ओबामा ने की है दिलचस्प टिप्पणी

(ओम तिवारी)
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’ इस वक्त पूरे विश्व में चर्चा में है। ओबामा ने इस किताब में उन राजनीतिक शख्सियतों पर अपने विचार सामने रखे हैं जिनसे वो अपने शासन काल में मिले। किताब ने भारत में काफी सुर्खियां बटोरी क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर उनकी टिप्पणी ने बीजेपी को उनके खिलाफ नया हथियार दे दिया। हालांकि कांग्रेस के नेताओं ने किताब में पीएम मोदी का जिक्र ना होने पर सवाल उठाए, आशय यह था कि जिस ओबामा को बराक बुलाकर अपना दोस्त बताते मोदी थकते नहीं थे, क्या उन्होंने उनकी शख्सियत को अपने संस्मरण में चर्चा के लायक भी नहीं समझा। लेकिन बीजेपी और कांग्रेस के बीच पुरानी छींटाकशी की नई वजह के बीच ओबामा की किताब में एक बात तो ऐसी जरूर थी जिस पर अमल करने से कांग्रेस का भविष्य बेहतर हो सकता है। हालांकि ओबामा सीधे तौर पर कांग्रेस को ऐसी कोई सलाह या मंत्र देते नजर नहीं आए, लेकिन उनकी बात से जो बात निकलती है वो राहुल गांधी के बड़े काम आ सकती है। 

राहुल को खतरा न हो इसलिए मनमोहन सिंह बनाए गए पीएम
बराक ओबामा के संस्मरण में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मनमोहन सिंह का एक वाक्य में जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘सोनिया ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री इसलिए चुना क्योंकि वो राहुल के लिए कोई खतरा नहीं थे’। हालांकि सियासत की समझ रखने वाले भारत के लोगों के लिए यह बात नई नहीं थी। राजनीतिक गलियारों और मीडिया में इस बात की चर्चा होती रही हैं। मौजूदा हालात में बातें तो यह भी होती हैं कि बेटे राहुल गांधी को दिल्ली के ‘सिंहासन’ पर बिठाने की जिद में सोनिया गांधी बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा को मौका नहीं देतीं। एक तरफ जहां राजनीति में राहुल की नाकामियों के वाकये गिनाए जाते हैं, वहीं वंशवाद की राजनीति का आरोप झेल रही कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया पर पुत्र मोह में पार्टी का भविष्य खतरे में डालने का आक्षेप भी लगता है। लेकिन इन बातों से अलग अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति की टिप्पणी बहुत मायने रखती है। क्योंकि ना सिर्फ यह टिप्पणी भारत की राजनीति हलचलों पर अमेरिका की पैनी नजर की पुष्टि करती है, बल्कि सोनिया की पुरानी रणनीति की चर्चा कर राहुल को कांग्रेस का भविष्य संवारने का रास्ता भी दिखाती नजर आती है। 

राहुल गांधी पर आखिर क्यों उठते हैं सवाल
सवाल यह है कि जब राजीव गांधी की हत्या के उपरांत लंबे समय तक राजनीति से दूर रहीं सोनिया सक्रिय राजनीति में कदम रखने के बाद भी उनके विदेशी मूल के होने पर उठने वाले सियासी हंगामों से बचने और सीताराम केसरी जैसे अध्याय से कांग्रेस को बचाने के लिए मनमोहन सिंह को आगे कर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने और खुद पार्टी संभालने का फैसला ले सकती है, तो राहुल गांधी ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं? 

क्योंकि किसी जमाने में राजनीति में अनिच्छा दिखाने वाले राहुल अगर सियासत में कूदने के 16 साल बाद भी अपरिपक्व होने का आरोप झेलते हैं, भविष्य में देश की बागडोर संभालने के काबिल नहीं समझे जाते, 2019 आम चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद खुद कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ देते हैं, पार्टी की अंदरुनी लड़ाई और अनिश्चितता के माहौल को खत्म नहीं करते, पार्टी की कमान गांधी परिवार से बाहर किसी नेता को देने की चुनौती भी देते हैं और बदलाव की मांग करने वाले पार्टी नेताओं पर कार्रवाई भी करते हैं, तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं से लेकर पूरे देश की जनता में संदेश तो यही जाता है कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं है। असर हर चुनाव में नजर आ रहा है। पार्टी टूट रही है, पार्टी का जनाधार टूट रहा है। बिहार चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। महागठबंधन में कांग्रेस के साथी आरजेडी ने हार की ठीकरा राहुल गांधी के सिर फोड़ दिया। उपचुनाव के नतीजे भी ऐसे ही रहे। कपिल सिब्बल और पी चिदंबरम ने हार पर सवाल उठाए तो लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने उन्हें पार्टी छोड़ने की धमकी दे दी।

राहुल गांधी के लिए अब वक्त
अब वक्त आ गया है कि राहुल गांधी अपनी प्राथमिकता तय कर लें। इसमें कोई दो राय नहीं कि तमाम हार के बावजूद देश में कांग्रेस का जनाधार पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। 2019 के आम चुनाव में बड़ी शिकस्त के बावजूद भारत की 24% आबादी ने अपना वोट कांग्रेस को दिया। देश में कांग्रेस की जड़ इतनी मजबूत तो है कि ना ही बीजेपी दो-तीन चुनावों में हराकर उसे खत्म कर सकती है, ना ही राहुल गांधी अपनी गैर-जिम्मेदार फैसलों से इसे पूरी तरह बर्बाद कर सकते हैं। लेकिन लंबे समय तक हालात नहीं बदले तो जो जनता कांग्रेस की जगह तीसरे मोर्च और एनडीए के हाथों में सत्ता की बागडोर सौंप सकती है, वो भविष्य में विपक्ष की भूमिका से भी कांग्रेस को बाहर कर सकती है। मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष जरूरी है। फिलहाल कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में है, और महज सत्ताधारी पार्टी की आलोचना की खानापूर्ति कर विपक्ष मजबूत नहीं होगा। राहुल गांधी अगर यह सोचते हैं कि जनता खुद बीजेपी से ऊब कर, सरकार विरोधी लहर में, उसे सत्ता से बाहर कर देगी तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल साबित हो सकती है। राहुल अगर इस इंतजार में हैं कि बीजेपी की सरकार जाने पर अपने आप देश सत्ता की कमान उनके हाथों में आ जाएगी तो यह गलतफहमी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ सकती है।
 
कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन की घड़ी
बहस इस बात की नहीं है कि बीजेपी की राजनीति देश के भविष्य के लिए बेहतर है या नहीं। बहस इस बात की है जो पार्टी मजबूत विपक्ष की भूमिका नहीं निभा सकती, वो सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में चुनौती कैसे दे सकती है? राजनीतिक पंडितों की तमाम भविष्यवाणियों के बावजूद देश में बीजेपी का प्रभुत्व बढ़ रहा है और ज्यादातर इलाकों में कांग्रेस की हार ही बीजेपी की जीत साबित हुई है। जहां क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व बढ़ा है वहां भी सत्ता कभी कांग्रेस के हाथों में थी। इसलिए कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन की घड़ी आ चुकी है, गांधी परिवार को अपनी रणनीति बदलनी होगी, राहुल गांधी को अपनी जिद छोड़नी होगी, हकीकत का सामना करना होगा। 

राहुल गांधी के पास तीन विकल्प
फिलहाल उनके पास तीन विकल्प नजर आते हैं। पहला विकल्प: अपनी छवि सुधारना। राहुल अगर प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं तो सबसे पहले उन्हें खुद को साबित करना होगा। असमंजस की स्थिति से बाहर निकलकर अपनी गंभीर छवि बनानी होगी। बयानों से नहीं देश के कोने-कोने का दौरा कर, लोगों के बीच जाकर, उनकी तकलीफ समझकर, उनसे जुड़ना होगा, उनके दिलों को जीतना होगा। दूसरा विकल्प: राहुल अगर गांधी, नेहरू, इंदिरा और राजीव जैसे जननेता बनने का माद्दा नहीं रखते तो उन्हें प्रधानमंत्री पद का लोभ भी छोड़ना होगा, फिर जैसे सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को चुना वैसे ही कांग्रेस की कमान अपने हाथों में रखकर, मजबूती से पार्टी को खड़ा कर उन्हें पीएम पद के लिए किसी और चेहरे को आगे बढ़ाना होगा। पूर्व आरबीआई गर्वनर रघुराम राजन के अगले मनमोहन सिंह बनने की चर्चा मीडिया में खूब रही है, इसकी हकीकत तो कांग्रेस हाईकमान को ही मालूम होगी। अगर यह दोनों विकल्प उन्हें मंजूर नहीं हैं, तो आखिरी रास्ता यही बचता है कि राहुल गांधी खुद को इस रेस से अलग कर लें। फिर या तो गांधी परिवार से प्रियंका को पार्टी का कार्यभार सौंप दिया जाए फिर प्रजातांत्रिक तरीके से किसी तीसरे कांग्रेसी नेता को पार्टी की कमान संभालने का मौका दे दिया जाए।

डिस्क्लेमर: टाइम्स नाउ डिजिटल अतिथि लेखक है और ये इनके निजी विचार हैं। टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।

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