- 1992 में एक बुनकर का बेटा जितेंद्र सिंह ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में सफलता पाई
- बिजली गुल होने से कपड़ा उद्योग पर पड़ने लगा असर तो विकल्प के तौर पर सामने आया IIT
- अबतक सैकड़ों आईआईटीयन दे चुका है पटवा टोली गांव
IIT Factory Patwa Toli Village: संघर्ष से उपजी सफलता का स्वाद कितना मीठा और आनंददायी होता है, इसका उदाहरण बिहार के गया जिले का पटवा टोली गांव है। कपड़ा बुनने के धागे में उलझी पटवा टोली के बुनकरों की उंगलियां कब देश को IIT छात्र देने लगी पता ही नहीं चला। दिन-रात कारखाने में आंखें गड़ाए बुनकरों के संघर्ष से उपजी सफलता देश ही नहीं विदेशों को भी इसपर सोचने पर मजबूर कर दिया। कपड़ा उद्योग के बरगद रुपी इस बड़े पेड़ की छाया में यहां के बच्चे पलते जरूर हैं, लेकिन वो इसके आदि होने की बजाय आईआईटी की पढ़ाई करके इसकी छाया से मुक्त होने का रास्ता खोज रहे हैं।
बड़ी-बड़ी मशीनों के बीच यहां के छात्र दिन-रात एक कर देते हैं, लेकिन अपने भविष्य को सुनहरा करने के सपने को साकार करने में जुटे हैं। गांव में बंद होते इस उद्योग में कहीं इन बुनकरों की आने वाली पीढ़ी ही तबाह न हो जाए इसके लिए यहां के लोगों ने कपड़े के साथ-साथ आईआईटी छात्र बनाने भी शुरू कर दिए।
बंद होते कपड़ा उद्योग से फूटी IIT छात्रों की बेल
बात उन दिनों की है जब पटवा टोली गांव के लोगों के सामने बिजली न होने की वजह से कपड़ा कारखाना चलाना और मुश्किल हो गया। जैसे ही बिजली गुल होती इनकी उंगलियां रुक जातीं, इन उंगलियों के रुकते ही इन बुनकरों के जीवन का आर्थिक पहिया भी रुक जाता। मंदी के कारण और संघर्ष भरे जीवन से उबरने के लिए यहां के लोगों का ध्यान IIT की ओर घूमा। मशीनों की आवाज के बीच बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
पटवा टोली गांव का वो पहला IIT छात्र, जिसने दिखाई दिशा
अपनी आजीविका चलाने के लिए गया जिले के इस छोटे से गांव को दो दशक पहले लोग सिर्फ बुनकरों के गांव के नाम से जानते थे, लेकिन अब विकिपीडिया पर भी बुनकर के साथ IIT लिख दिया गया है। ये गांव की बड़ी सफलता है कि उसने लोगों के तन ढकने के साथ-साथ देश की नींव को मजबूत करने के लिए आईआईटी छात्रों का उत्पादन भी करना शुरू कर दिया। साल 1992 में एक बुनकर का बेटा जितेंद्र सिंह ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में सफलता पायी। पटवा टोली गांव का ये पहला आईआईटी छात्र था। गांव का रोल मॉडल बनते देर नहीं लगी। जितेंद्र ने कपड़ा उद्योग के अलावा भी एक नया सपना यहां के लोगों को दिया।
अब रंगीन धागों में उलझकर नहीं रह जाएगा भविष्य
पटवा टोली के गांव के पूर्वज कपड़ा उद्योग से जुड़े हैं। गांव में घुसते ही आज भी आपको धागे की महक, मशीन की तेज आवाज आदि सुनाई दे सकती है। यहां के लोगों का मुख्य और एकमात्र व्यवसाय कभी बुनाई ही हुआ करती थी। यहां जाति मायने नहीं रखती। हर वर्ग कपड़ा उद्योग से जुड़ा है। लेकिन आधुनिक युग में पूरी तरह से गांव का परिदृश्य बदल चुका है। यहां के माता-पिता अब रंगीन धागों में उलझकर नहीं रह गए हैं। अपने बच्चों के भविष्य को इस रंगीन धागे के अनदेखे संघर्ष की छाया में रखे जरूर, लेकिन उनका भविष्य इस छाया से कोसों दूर है। एक तरफ कपड़े की बुनाई तो दूसरी ओर आईआईटी के छात्रों को बनाकर यहां के लोगों ने सच में कमाल कर दिया है।
सैकड़ों IIT छात्र दे चुका है गांव
बुद्धिमत्ता के गढ़ बिहार के गया के इस गांव में आलम ये है कि हर घर में कम से कम एक इंजीनियर तो है ही। ये गांव अब तक तीन सौ से अधिक IIT छात्रों का भविष्य बना चुका है। पटवा टोली गांव न सिर्फ बिहार बल्कि देश के मानचित्र में अपने दो चीजों के लिए जाना जा रहा है। एक तो यहां कपड़ा उद्योग और दूसरा IIT छात्र। सबसे खास बात ये है कि यहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव होने के बावजूद भी गांव के लोग अपने बच्चों का भविष्य बना रहे हैं।
पटवा टोली गांव के इस हौसले की उड़ान को पूरा देश सच में सलाम करता है। चुनाव के आते ही नेता कई वाडे करते हैं, लेकिन असलियत से कोसों दूर इन वादों को पटवा टोली गांव के लोगों ने खुद ही पूरा करना सीख लिया। वो अब किसी नेता के सामने हाथ फैलाने की बजाय अपने बच्चों के पंखों को इतना मजबूत कर रहे हैं कि कल उनके बच्चे भी दूसरे समृद्ध लोगों के बच्चों की तरह आसमान में स्वछंदता से उड़ान भर सकें।