- दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन चीन और अमेरिका करते हैं।
- जलवायु परिवर्तन की वजह से 2020 में चीन को 238 अरब डॉलर और भारत को 83 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है।
- उत्तराखंड और केरल में हाल ही में हुई भारी बारिश की एक बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन है। जिसमें सैकड़ों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।
नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे समय पर ग्लासगो में COP-26 (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) में भाग लेने जा रहे हैं, जब कुछ दिनों पहले जलवायु परिवर्तन की वजह से उत्तराखंड और केरल में भारी तबाही का लोगों को सामना करना पड़ा। दोनों राज्यों में भारी और बेमौसम बारिश की वजह से सैकड़ों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। World Meteorological Organization (WMO) की रिपोर्ट के अनुसार भारत को पिछले साल प्राकृतिक आपदाओं की वजह से 87 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है। अकेले सुंदरबन क्षेत्र से 24 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। इसी तरह चीन को 238 अरब डॉलर और जापान को 83 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। इसी तरह स्विस री इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार अगर 2050 तक पृथ्वी का तापमान 2.0 से 2.6 डिग्री तक बढ़ता है तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को 11 से 13.9 फीसदी का नुकसान होगा।
ग्लासगो में क्या होगा
जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में होने वाले नुकसान को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ग्लासगो दौरा काफी अहम है। वहां पर दुनिया के 120 देश COP 26 में जलवायु परिवर्तन को लेकर चर्चा करने वाले हैं। COP26 सम्मेलन 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक आयोजित होगा। इस बार का सम्मेलन इसलिए भी अहम है क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन भी शिरकत करेंगे। बाइडेन का शामिल होना इसलिए अहम है, क्योंकि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से अलग होने की बात कही थी। जबकि ग्लासगो में पेरिस समझौतो को अंतिम रुप देना सबसे अहम एजेंडे में से एक है।
साल 2015 में जलवायु परिवर्तन को लेकर जो पेरिस समझौते हुआ था। इसका मकसद कार्बन गैसों का उत्सर्जन कम कर दुनियाभर में बढ़ रहे तापमान को रोकना था। इसके तहत तापान को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने के लिए दुनिया ने अपने लक्ष्य तय किए थे।
ये देश सबसे ज्यादा करते हैं कार्बन उत्सर्जन
देश | CO2 उत्सर्जन में हिस्सेदारी |
चीन | 28 फीसदी |
अमेरिका | 15 फीसदी |
भारत | 7 फीसदी |
रुस फेडरेशन | 5 फीसदी |
जापान | 3 फीसदी |
(स्रोत: Union of Concerned Scientists)
भारत का क्या रहेगा एजेंडा
ग्लासगो में भारत क्या एजेंडा रखने वाला है, इसके संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यात्रा जाने से पहले दे दिए हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय की रिपोर्ट के अनुसार , भारत स्वच्छ एवं नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, वनीकरण और जैव-विविधता का विस्तार करने के लिए महत्वाकांक्षी कदम उठा रहा हैं। भारत नवीकरणीय ऊर्जा, पवन और सौर ऊर्जा क्षमता हासिल करने के मामले में दुनिया के शीर्ष देशों में से एक है। मैं जलवायु कार्रवाई पर भारत के उत्कृष्ट ट्रैक रिकॉर्ड और अब तक की हमारी उपलब्धियों को साझा करूंगा।
मैं सम्मेलन के दौरान वायुमंडल में उत्सर्जित होने वाली कार्बन के समान वितरण की आवश्यकता, उसको कम करने के लिए जरूरी कदम उठाने, पूंजी जुटाने, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और ग्रीन एवं समावेशी विकास के लिए टिकाऊ जीवन शैली के महत्व सहित जलवायु परिवर्तन के विभिन्न मुद्दों को व्यापक रूप से हल करने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालूंगा।
खतरनाक स्तर की ओर बढ़ रही है दुनिया
UNEP की रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा समय में अलग-अलग देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उससे दुनिया का तापमान इस सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा। साफ है कि मौजूदा विजन कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार इस सदी में ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए, पेरिस समझौते के तहत जो महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है, उसे हासिल करने के लिए दुनिया को अगले आठ वर्षों में सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को आधा करने की आवश्यकता है।
क्यों नहीं लक्ष्य हो रहे हैं पूरे
प्रख्यात पर्यावरणविद अनिल जोशी ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से कहा कि अब तक 25 COP हो चुकी हैं। इसका क्या हुआ, कुछ नही ? असल में पूरी कवायद 2 चीजों में फंस जाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि कोई देश अपने हिस्से का विकास क्यों रोकेगा। और अगर विकास करना है तो कोयले का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा। ऐसे में प्रदूषण फैलेगा ही। भारत और चीन अमेरिका के कहने पर अपना विकास क्यों रोकेंगे, खास तौर पर जब अमेरिका खुद भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करता है। ऐसे में वह दूसरे को कैसे सबक दे सकता है। दूसरी बात क्षतिपूर्ति की है, उसे भी अमेरिका जैसे देश नहीं देने वाले हैं। फिर बात कैसे बनेगी?
जहां तक भारत की बात है तो हम भी बंटे हुए नजर आते हैं। एक तरफ हम हिमालय क्षेत्र में होने वाली त्रासदियों को गंभीरता से नहीं लेते हुए दिखाई देते हैं। दूसरी तरह हम महत्वाकांक्षी विकास योजनाओं के सपने भी देख रहे हैं।
कुछ हद तक कोयले को लेकर दुनिया में गंभीरता आई है। लेकिन यह अभी अपर्याप्त है। अगर वास्तव में हम प्रदूषण कम करना चाहते हैं, तो दुनिया को विकास की एक अधिकतम सीमा (CAP) तय करनी होगी। कि इससे ज्यादा विकास नहीं होगा। अभी जो प्रदूषण को खत्म करने के कदम उठाए जा रहे हैं, वह नाकाफी हैं। जो कि ऊंट के मुंह में एक जीरा है।
क्या है नेट जीरो संकल्प
ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन और वातावरण से ग्रीनहाउस गैस कम करने के बीच के संतुलन को नेट जीरो उत्सर्जन कहा जाता है। इसका मतलब यह है कि हर देश को एक तय साल में कुल कार्बन-उत्सर्जन शून्य करना होगा।संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने वाले 192 में से 65 देशों ने राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने का लक्ष्य तय किया है। अमेरिका सहित इन देशों ने साल 2050 की डेडलाइन तय की है। जबकि चीन ने साल 2060 की डेडलाइन तय की है। जबकि भारत ने अभी नेट जीरो के लिए डेडलाइन घोषित नहीं की है। हालांकि भारत सरकार ने साल 2030 तक अपनी बिजली आपूर्ति का 40 फीसदी हिस्सा रिन्यूएबल (अक्षय) और परमाणु ऊर्जा से हासिल करने का लक्ष्य रखा है। इसी तरह कार्बन उत्सर्जन में भी 33फीसदी कमी लाने की बात कही है।