- नीतीश कुमार हाल के दिनों में पेगासस, जनसंख्या नीति और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर भाजपा के रुख से अलग नजरिया रख चुके हैं।
- बिहार में 2020 के विधान सभा चुनावों में भाजपा को जद (यू) से ज्यादा सीटें मिली थीं और वह बड़े भाई के रूप में उभरी है।
- नीतीश की उम्र को देखते हुए 2024 के लोक सभा चुनाव काफी मायने रखेंगे।
नई दिल्ली। 23 अगस्त का दिन बिहार की राजनीति और केंद्र की राजनीति के लिए कई सारे कयास लेकर आया है। क्योंकि 2017 में राजद से गठबंधन तोड़कर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव उसके बाद पहली बार किसी मुद्धे पर एक साथ दिखे हैं। मौका, जातिगत जनगणना को लेकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात का था। क्या सियासी हवा बदल रही है, इसको लेकर राजद नेता और पूर्व उप मुख्य मंत्री तेजस्वी यादव से मीडिया ने सवाल भी पूछ लिया कि क्या आप और नीतीश कुमार सियासी तौर पर एक बार फिर नजदीक आ रहे हैं, क्योंकि मुद्दे मिल रहे हैं? इस सवाल पर तेजस्वी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया और कहा " राष्ट्रीय हित, विकास और लोगों की तरक्की के लिए कोई काम होगा तो विपक्ष सरकार के साथ ही रहेगा।" जाहिर है जातिगत जनगणना का मुद्दा आने वाले दिनों में राजनीतिक रुप से कई उथल-पुथल कर सकता है।
नीतीश और तेजस्वी ने मिलकर बनाई थी सरकार
साल 2015 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में जद (यू)ने राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। इसके अलावा कांग्रेस और अन्य दलों के साथ मिलाकर जद (यू) और राजद ने गठबंधन बनाया था। और चुनावों में इस गठबंधन की सरकार बनी थी। उस वक्त नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन 2017 में नीतीश कुमार ने राजद से गठबंधन तोड़ लिया और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। उस वक्त नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के लगे आरोपो के नाम पर राजद से नाता तोड़ लिया था। जिसके बाद दोनों दलों में कड़वाहट आ गई थी।
पिछले कुछ दिनों से नीतीश के बदले हैं सुर
जातिगत जनगणना पर जिस तरह से नीतीश कुमार ने भाजपा को सीधे चुनौती दी है। वह जरूर पार्टी को चिंता में डाल सकती है। क्योंकि अभी भी भारतीय जनता पार्टी खुलकर जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं बोल रही है। सरकार ने साफ कर दिया है कि 2021 की जन गणना में केवल अनुसूचित जाति और जनजातियों की ही गणना की जाएगी। ऐसे में नीतीश का जातिगत जनगणना पर खुल कर सामने आने भाजपा को असहज करेगा। भाजपा के लिए चिंता इसलिए भी बढ़ सकती है क्योंकि केवल जातिगत जनगणना ही ऐसा मुद्दा नही है, जिसमें वह भाजपा के रूख से अलग नजरिया रखते हैं।
हाल ही में पेगासस जासूसी के मामले में भी नीतीश कुमार ने 2 अगस्त को मीडिया से बात करते हुए कहा था "पेगासस केस की निश्चित तौर पर जांच होनी चाहिए। हम टेलीफोन टैपिंग के मामले को कई दिनों से सुन रहे हैं। ऐसे में जांच होनी चाहिए।" इसी तरह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नई जनसंख्या नीति लाने की घोषणा की, तो नीतीश कुमार ने 12 जुलाई को बयान दिया था कि कुछ लोग सोचते हैं कि कानून बनाने से सब कुछ हो जाएगा, सबकी अपनी सोच है। हम तो महिलाओं को शिक्षित करने का काम कर रहे हैं और इसक असर प्रजनन दर पर दिखेगा। इसी तरह उन्होंने जनवरी में एनआरसी को लेकर बयान दिया था कि और कहा- हम बिहार में इसे लागू नहीं करेंगे।
क्या नीतीश बना रहे हैं दूरी
नीतीश क्या भाजपा से दूरी बना रहे हैं इस सवाल पर जद (यू) के प्रवक्ता अजय आलोक टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से कहते हैं " राजनीति में इस तरह के कयास चलती रहती हैं, आप एक काम कीजिएगा तो चार आदमी चार बातें करेंगे। लेकिन सच्चाई यही है कि जद (यू) और राजद एक साथ नहीं है और न ही उनके आने की कोई संभावना है। कयासबाजी से कोई फायदा नहीं है। जहां तक जातिगत जनगणना पर हमारे रुख की बात है तो हमारा उद्देश्य बहुत साफ है कि किस जाति की जनसंख्या कितनी है, यह पता करना बेहद जरूरी है। क्योंकि आजादी के 70 साल बाद भी अगर अपेक्षित विकास नहीं हुआ है तो उसकी वजह पता लगानी जरूरी है। साफ है कि यह जानना जरूरी है कि कौनी सी जातियां छूटी है, जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए, यह भी पता करना जरूरी है कि जिन्हें आरक्षण का लाभ मिला उनकी स्थिति में कितना परिवर्तन हुआ है। यह सब जानना बेहद जरूरी है।
केंद्र और राज्य सरकारों के हजारों-लाखों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं, उसका सही लाभ मिलना चाहिए। जब देश आजाद हुआ था तो देश की जनसंख्या 52 करोड़ थी और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों लोगों की संख्या 35 करोड़ थी। आज हमारी जनसंख्या 130 करोड़ है और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 70 करोड़ हो गई। ऐसा क्यों हो गया ? दूसरी बात नए कानून से राज्यों को अधिकार मिल गया है कि वह खुद जातियों को ओबीसी लिस्ट में शामिल कर सकेंगी। लेकिन जब तक पता नहीं चलेगा किस जाति की कितनी जनसंख्या है तब तक हम इस अधिकार का सही इस्तेमाल कैसे करेंगे। और मुझे नहीं लगता है कि भाजपा इससे दूरी बना रही है। मेरा तो मानना है कि हर 25 साल पर जातिगत जनगणना को अनिवार्य कर देना चाहिए।"
क्या नीतीश को बड़े भाई का दर्जा छिनने का है मलाल
वैसे तो भाजपा और नीतीश की राजनैतिक दोस्ती का रिश्ता साल 1996 से शुरू हुआ था और 2013 तक बेहद मजबूती से चला था। लेकिन जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो सांप्रदायिकता के सवाल पर नीतीश ने बीजेपी से 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया। और 2014 के लोकसभा चुनाव में जद (यू) को बिहार में भारी हार का सामना करना पड़ा। नीतीश ने चुनाव नतीजों के दूसरे दिन मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और जीतन राम मांझी को सीएम बना दिया था। और फिर वह 2015 में राजद के साथ मिलकर चुना था। और सत्ता हासिल की थी, लेकिन 2017 में फिर से भाजपा से गठबंधन कर सरकर बनाई और 2020 के चुनाव के बाद फिर मुख्य मंत्री बने। लेकिन इस बार भाजपा ने बाजी मारी और बिहार में पहली बार भाजपा के सामने से जनता दल (यू) छोटी पार्टी बन गई। इन चुनावों में राजद को 75, भाजपा को 74 और जद (यू) को 43 सीटें मिली। क्या नीतीश को छोटे भाई बनने का मलाल है इस पर अजय आलोक कहते हैं देखिए इन बातों का कोई मतलब नही है। हमारा वोट प्रतिशत कहीं नहीं घटा है, जब हम पहले भाजपा के साथ तो हमें 18-21 तक फीसदी वोट मिला था। इसी तरह जब आरजेडी के साथ चुनाव लड़े थे, तब भी हमारा वोट प्रतिशत 17 फीसदी था। आज भी हमारा 18 फीसदी वोट है। तो हमारे आधार में क्या फर्क पड़ा।
नीतीश लेंगे यू-टर्न
क्या राज्य में कोई राजनीतिक समीकरण बदलने वाला है इस पर राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी टाइम्स नाउ नवभारत से कहते हैं " यही लोकतंत्र की खूबी है कि विपक्ष और सत्ता पक्ष भी जनहित के लिए एक साथ आते हैं। एक ऐतिहासिक काम होने वाला है। जहां तक सियासी मायने की बात है तो राजनीति में संभवानाओं के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं। जहां तक नजदीकियां बढ़ने की बात है तो दूरियां कब थी ? देखिए आगे-आगे क्या होता है। राजनीति में भविष्य का जवाब देना संभव नहीं है। भाजपा के एक नेता कहते हैं, नीतीश हमारे साथ ही रहेंगे, इन कयासों का कोई मतलब नहीं है।