- नीतीश जैसी ताकत विधानसभा चुनावों में रखते हैं, वैसा रिजल्ट उन्हें लोकसभा चुनाव में अपने दम पर हासिल नहीं होता है।
- जब 2015 में नीतीश कुमार ने राजद के साथ गठबंधन कर महागठबंधन बनाया तो भाजपा 53 सीटों पर सिमट गई ।
- 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर से नीतीश कुमार को फायदा मिला।
Nitish Kumar Take Oath Today: बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ऐसा नाम है, जिसके पास पिछले 17 साल से सत्ता की चाबी है। और इस दौरान वह 3 बार पाला बदल चुके हैं, फिर भी उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी को कोई नहीं हिला सका है। अहम बात यह है कि इन 17 साल में नीतीश की पार्टी जनता दल (यू) पहले नंबर की पार्टी से तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी है। लेकिन इसके बावजूद उनकी कुर्सी बरकरार है। वहीं उन्हें समर्थन देने वाली चाहे भाजपा हो या फिर आरजेडी दोनों ही जद (यू) से बड़ी पार्टी होकर छोटे भाई की भूमिका में रहने के तैयार दिखती हैं। हाल के समय में नीतीश कुमार भले ही अपनी पार्टी को कमजोर होता देख रहे हैं लेकिन उनके मुकाबले बिहार में अभी भी कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो उन्हें चुनौती दे सके।
17 साल से नीतीश ने खड़ा कर लिया है ये खास वोट बैक
बिहार की राजनीति को अगर देखा जाय तो 1990 की मंडल राजनीति ने वहां की चुनावी ताने-बाने को बदल दिया और पिछड़े वर्ग के पास सत्ता की चाबी पहुंच गई। और वह असर 2022 तक जारी है। इसके अलावा नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए बेहद राजनीतिक सूझबूझ से अति पिछड़े वर्ग और महादलित वर्ग का नया वोट बैंक खड़ा कर दिया। इसका असर यह हुआ है महिलाओं के साथ हर धर्म से अति पिछड़े वर्ग नीतीश कुमार के साथ हो गए। जिसका फायदा उन्हें 17 साल में हर चुनाव में मिलता है। लव कुश (कुर्मी, कुशवाहा, कोइरी),महादलित, महिलाएं नीतीश के साथ मजबूती खड़े हैं। इसलिए 2020 के विधानसभा के चुनाव के पहले जद (यू) 2005 के बाद से हमेशा पहले या दूसरी नंबर की पार्टी बनी रही। उसका फायदा यह हुआ कि चाहे भाजपा हो या राजद कोई पार्टी अकेले अपने दम पर बहुमत नहीं जुटा पाई और उसे सत्ता के लिए नीतीश का ही सहारा लेना पड़ा।
जिस पाले में नीतीश जाते हैं उसे मिलता है बड़ा फायदा
इसी वोट बैंक और सुशासन बाबू की छवि का फायदा उठाने के लिए जो दल उनसे जुड़ता है, उसे चुनाव में बड़ा फायदा मिल जाता है। मसलन 2005 से 2013 तक भाजपा उनके साथ सत्ता में रही और इस मजबूत गठबंधन का फायदा यह हुआ है कि वह राजद को लगातार सत्ता से बेदखल करती रही। वहीं जब 2015 में नीतीश कुमार ने राजद के साथ गठबंधन कर महागठबंधन बनाया तो भाजपा 53 सीटों पर सिमट गई और गठबंधन को 42 फीसदी वोट के साथ सत्ता मिल गए। अब नीतीश इस ताकत के जरिए, केंद्र में विपक्ष की राजनीति में सक्रिय होने के संकेत दे रहे हैं।
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लोकसभा में नहीं चलता है जादू
नीतीश जैसी ताकत विधानसभा चुनावों में रखते हैं, वैसा कद उन्हें लोकसभा चुनाव में हासिल नहीं होता है। 2014 में जब उन्होंने लोकसभा चुनाव भाजपा के बिना चुनाव लड़ा तो जद (यू) केवल 2 सीटों पर सिमट गई। वहीं जब 2019 में एक बार फिर पाला बदल कर भाजपा के साथ आए तो उनके 16 सांसद चुनाव जीत कर आए। जाहिर है कि लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर से उन्हें फायदा मिला। अब वह विपक्ष के पाले में चले गए तो उन्हें केंद्र की राजनीति में उसी मोदी फैक्टर का सामना करना पड़ेगा। जो आसान चुनौती नहीं दिखती है, खास तौर पर जब जद (यू) का बिहार से बाहर कोई खास वजूद ही नही है।