- देश की आजादी के चंद महीने बाद ही पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया
- पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर के डोगरा सैनिकों के लिए मुश्किलें पैदा कर दी थी
- हालांकि विलय पत्र पर हस्ताक्षर के बाद दखल देकर भारत ने तुरंत पासा पलट दिया
नई दिल्ली : देश को आजादी मिले अभी चंद महीने ही हुए थे कि कबायलियों के भेष में पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर में चढ़ाई कर दी। 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान की तरफ से तकरीबन ढाई-तीन सौ ट्रक कश्मीर में दाखिल हुए थे, जिसमें पाकिस्तान के फ्रंटियर प्रोविंस के कबायली भरे हुए थे। उनकी संख्या करीब 5000 थी, जिनकी अगुवाई पाकिस्तान के छुट्टी पर गए सिपाही कर रहे थे। उनकी मंशा साफ थी, कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना। जम्मू-कश्मीर तब तक भारत का हिस्सा नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र रियासत थी।
...और अंधेरे में डूब गया था श्रीनगर
आजादी के बाद कई रियासतें थीं, जिन्होंने भारत या पाकिस्तान के साथ जाना चुन लिया। लेकिन जम्मू-कश्मीर असमंजस की स्थिति में था। आजादी से महज तीन दिन पहले 12 अगस्त, 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान के साथ यथास्थिति संबधी समझौते पर हस्ताक्षर किया था, जिसका अर्थ यह था कि जम्मू-कश्मीर न तो भारत के साथ जाएगा और न ही पाकिस्तान के साथ, बल्कि स्वतंत्र बना रहेगा। हालांकि पाकिस्तान ने इस समझौते का सम्मान नहीं किया और कबायलियों के भेष में जम्मू-कश्मीर पर हमला बोल दिया।
कबायली एक के बाद एक कई इलाकों पर कब्जा करते जा रहे थे। 24 अक्टूबर को वे श्रीनगर के करीब पहुंच गए और वहां माहुरा पावर हाउस को बंद कर दिया, जिससे पूरा श्रीनगर अंधेरे में डूब गया। इसका जिक्र 'फ्रीडम एट मिडनाइट' पुस्तक में भी मिलता है, जिसमें लिखा गया है, 'बत्तियां बुझी हुई थी। इंजन बंद था। लड़ाई से पहले के दिनों की पुरानी फोर्ड स्टेशन-वैगन बर्फानी रात में धीरे-धीरे रेंगती हुई पुल से कोई सौ गज पहले आकर रुक गई थी। उसके पीछे काली परछाइयों का लंबा सिलसिला था, जो ट्रकों की लंबी कतार थी। हर ट्रक में कुछ लोग चुपचाप बैठे हुए थे।'
रियासत को बचाने के बेचैन हो गए थे हरि सिंह
तब स्वतंत्र रियासत जम्मू कश्मीर के डोगरा राजा हरि सिंह पाकिस्तान से आए कबायलियों का मुकाबले कर पाने में खुद को सक्षम नहीं पा रहे थे। उन्हें राज्य अपने हाथ से निकलता नजर आ रहा था, जिसके बाद उन्होंने स्वतंत्र रहने की जिद छोड़कर भरत से मदद की गुहार लगाई। इसके बाद दिल्ली में भी गतिविधियां तेज हो गई। भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के नेतृत्व में रक्षा समिति की बैठक हुई, जिसमें यह तय किया गया कि गृह सचिव वीपी मेनन कश्मीर जाकर जमीनी हालात का जायजा लेंगे और सरकार को इस पर रिपोर्ट सौंपेंगे।
मेनन को श्रीनगर पहुंचते ही वहां की गंभीर स्थिति का एहसास हो चुका था। लेकिन लॉर्ड माउंटबेटन स्वतंत्र रियासत में सेना भेजने के लिए तैयार नहीं थे। महाराजा हरि सिंह साफ तौर पर अपनी रियासत को बचाने को लेकर बेचैन थे। इस संबंध में 'बीबीसी' की एक रिपोर्ट में मेनन की किताब 'द स्टोरी ऑफ द इंटीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स' का हवाला देते हुए लिखा गया है, 'महाराजा ने अपने स्टाफ से कहा था कि जब मेनन वापस लौटें तो इसका अर्थ होगा कि भारत, जम्मू-कश्मीर की मदद करने के लिए तैयार है। ऐसी स्थिति में उन्हें सोने दिया जाए और अगर मेनन (दिल्ली से) नहीं लौटे तो इसका अर्थ होगा कि सब खत्म हो गया है और इस स्थिति में उन्हें सोते हुए ही गोली मार दी जाए।' हालांकि यह नौबत नहीं आई और भारतीय सेना समय रहते जम्मू कश्मीर की मदद के लिए पहुंच गई और इस तरह जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हो गया।