- विपक्ष की बैठक से टीएमसी ने दूर रहने का किया फैसला
- ममता बनर्जी के फैसले के निकाले जा रहे हैं सियासी मायने
- मेघालय में कांग्रेसी विधायकों के टीएमसी में शामिल होने के बाद कांग्रेस से बढ़ी तल्खी
सियासत में कभी कोई किसी का ना तो स्थाई दोस्त या दुश्मन होता है। अगर ऐसा होता तो यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी एक साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़े होते। भारतीय राजनीति में इस तरह के कई उदाहरण हैं। ऐसे में सवाल यह है कि मोदी के खिलाफ विपक्षी एकता में ममता बनर्जी की भूमिका क्या होगी। दरअसल राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में टीएमसी का क्षेत्रीय दल के तौर पर ही माना जाता है। सवाल यह है कि क्या ममता बनर्जी, कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार कर आगे बढ़ेंगी तो इस सवाल के जवाब में जानकार कहते हैं कि ममता बनर्जी ने हाल ही में जिस तरह से कांग्रेसी विधायकों को अपने पाले में किया उसके बाद रिश्तों में खटास आई है।
क्या अलग राह अख्तियार करेंगी ममता बनर्जी
29 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है, सत्र से ठीक पहले विपक्षी दलों की बैठक होने जा रही है लेकिन टीएमसी ने उस बैठक से दूर रहने का फैसला किया है। दरअसल यह टीएमसी का विपक्ष की बैठक से दूर होने तक सीमित नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि क्या ममता बनर्जी, सोनिया गांधी या राहुल गांधी की अगुवाई में आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं, या वो खुद को पीएम मोदी के विकल्प के तौर पर देखती हैं। अगर बात करें पीएम मोदी के विकल्प की तो टीएमसी प्रमुख को लगता है जब वो बीजेपी की सारी कोशिशों को बंगाल में धाराशायी कर सकती हैं तो राष्ट्रीय फलक पर वो खुद को विकल्प के तौर पर क्यों नहीं पेश कर सकती हैं।
क्या कहते हैं जानकार
जानकार कहते हैं कि अगर ममता को यह ख्याल आता है कि कि वो 2024 में विपक्षी गठबंधन का चेहरा बनकर चुनौती दे सकती हैं तो गलत ना होगा। दरअसल ममता बनर्जी के नाम पर कांग्रेस को छोड़कर क्षेत्रीय दलों को कोई खास परेशानी नहीं हैं। यूपी में समाजवादी पार्टी या बीएसपी की बात करें तो उनके बयान ममता बनर्जी के पक्ष में जाते हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार उनके पक्ष में खड़ी नजर आती है। तो महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी का रुख इतना कड़ा नहीं दिखाई देता है। अगर बात दक्षिण भारत की करें को जो कांग्रेस का विरोधी है वो उनका स्वाभाविक दोस्त हो सकता है।