Draupadi Murmu : द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति चुनाव जीत चुकी हैं। 25 जुलाई से पहले वह देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेंगी। वह देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति होंगी। उनका जीवन प्रेरणादायक है। वह विनम्र, मृदूभाषी और संयमित जीवन वाली महिला हैं। वह राजनीतिक होते हुए भी आरोप-प्रत्यारोप वाली सियासत से दूर रही हैं। चुनाव में उनकी स्वीकार्यता सभी दलों में देखी गई है। विपक्ष भी उनका विरोध मुखर रूप से नहीं कर सका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें जीत की बधाई दी है और कहा है कि उनका जीवन प्रेरणादायक है। पीएम ने उम्मीद जताई है कि अगले पांच सालों में वह भारत के विकास यात्रा को मजबूत बनाने के साथ-साथ देश को आगे ले जाने में अहम भूमिका निभाएंगी।
जाहिर है कि समाज के सबसे निचले तबके एवं आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू महिलाओं के लिए एक प्रेरणा बनेंगी। उनकी राजनीतिक यात्रा एक आदर्श नेता के रूप में हो सकती है और उनके व्यक्तित्व को इसी रूप में देखा जा सकता है। राष्ट्रपति चुनाव केवल व्यक्तित्व के अच्छे और बुरे गुणे पर निर्भर नहीं करता वह बहुत कुछ विचारधारा एवं राजनीतिक समीकरण के गुणे-भाग पर निर्भर करता है। मुर्मू भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए की उम्मीदवार थीं। इस चुनाव में उनकी लड़ाई विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा से थी। मुर्मू की जीत को भाजपा खासकर पीएम मोदी के मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा जा रहा है। कई लोग इसे 2014 के लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल और विपक्षी एकता का टेस्ट मान रहे थे।
जाहिर है कि इस मास्टरस्ट्रोक के आगे विपक्षी एकता छिन्न-भिन्न हो गई है। चुनाव में विपक्ष कहीं भी मैदान में नजर नहीं आया लगता है कि वह पहले ही हार मान चुका था और बेमन से चुनाव लड़ रहा था। मुर्मू की जीत को पीएम मोदी का मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है। इसके कई सियासी संदेश हैं। मुर्मू की जीत से सबसे बड़ा राजनीतिक संदेश यह गया है कि भाजपा समाज के सबसे निचले तबके के लोगों की फिक्र करती है। कई ऐसे राज्य हैं जहां आदिवासी समुदाय की आबादी चुनाव में जीत हार में बड़ी भूमिका अदा करती है। इन राज्यों में भाजपा को अगले चुनावों में फायदा मिल सकता है।
राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की कमजोरी साफ तौर पर उजागर हुई है। विपक्षी एकता नजर नहीं आई। विपक्ष का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार टीएमसी से आया था लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान टीएमसी की दूरी ने विपक्षी एकता पर कई सवाल खड़े किए। ममता बनर्जी कभी यशवंत सिन्हा के साथ नजर नहीं आईं। यहां तक कि यशवंत सिन्हा बंगाल में अपने लिए वोट मांगने नहीं गए। विपक्ष को एक सूत्र में बांधने और भाजपा का मुकाबला करने के लिए मंच तैयार कर रहीं ममता बनर्जी को मुर्मू का विरोध करने का साहस नहीं हुआ। वह जानती थीं कि मुर्मू का विरोध करने पर बंगाल में आदिवासी समाज चुनाव में उनसे दूरी बना सकता है। बंगाल में आदिवासी समुदाय की संख्या काफी ज्यादा है। कुछ ऐसा ही हाल झारखंड में हुआ।
आदिवासी उम्मीदवार का विरोध जेएमएम भी नहीं कर पाई। मुर्मू के जरिए भाजपा ने विपक्ष के वोटों में सेंध लगा दी। कई राज्यों में विधायकों की क्रास वोटिंग इसी बात का संकेत देती है। राष्ट्रपति चुनाव के जरिए भाजपा ने विपक्षी एकता में सेंध ही नहीं लगाई बल्कि गैर-भाजपा और गैर-यूपीए दलों की समर्थन हासिल करने में सफलता भी पाई। इस चुनाव में वाईएसआर कांग्रेस, बीजद और शिअद ने मुर्मू का समर्थन किया। मुर्मू को 64 प्रतिशत वोट मिला है जो दिखाता है कि विपक्ष से अच्छी-खासी संख्या में उन्हें वोट मिला है। इस चुनाव में विपक्ष की कई कमियां उजागर हुई हैं। एक तो उसने यशवंत सिन्हा के रूप में ऐसे उम्मीदवार का चयन किया जो कोई राजनीतिक संदेश नहीं पाया। दूसरा, उसमें चुनाव जीतने की कोई ललक नहीं दिखाई दी।