सियासत में राजनीतिक शख्सियतों के लिए संभावना हमेशा बरकरार रहती है। राजनीतिक चेहरे अपने सभी फैसलों पर समय की मांग करार खुद को अवसरवादी होने से बचाने की कोशिश भी करते हैं। दरअसल यह बातें इसलिए हो रही हैं क्योंकि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ने बुधवार को सीएम योगी आदित्यनाथ से करीब 20 मिनट मुलाकात की थी। अब सवाल यह है कि जब शिवपाल सिंह यादव खुद कह चुके हैं कि मुलाकात, शिष्टाचार से जुड़ी थी तो सियासी मायने को ढूंढने की जरूरत क्या है। लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। क्या शिवपाल यादव को लगता है कि उनका सिर्फ सियासी तौर पर इस्तेमाल हुआ।
एसपी के सिंबल पर शिवपाल यादव लड़े थे चुनाव
शिवपाल यादव वैसे तो अपनी पार्टी चलाते हैं, लेकिन 2022 का चुनाव वो समाजवादी पार्टी के सिंबल पर लड़े। तकनीकी तौर पर वो समाजवादी पार्टी के हिस्सा हैं। मसला तब शुरू हुआ जब समाजवादी पार्टी विधायक दल की बैठक हुई और उसमें शिवपाल यादव को बुलाया नहीं गया और उनका दर्द भी झलका। जानकार कहते हैं कि सियासत के मानिंद लोग खुद को बूढ़ा कभी नहीं मानते हैं। लेकिन शिवपाल यादव को जिस तरह से 2022 के चुनाव से पहले अखिलेश यादव अपने पाले में लाए उसके आगे की राजनीति को शायद नहीं समझ सके और उन्हें यह बात तब समझ में आई जब तकनीकी हवाला देते हुए समाजवादी पार्टी ने कह दिया कि शिवपाल यादव तो घटक दल से हैं और गठबंधन दलों की बैठक के लिए अलग तारीख मुकर्रर की गई थी।
2017 की वो पारिवारिक कलह
शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश यादव के संबंधों को समझने के लिए 2017 के साल पर गौर करना होगा। यूपी चुनावी मोड में जा चुका था और समाजवाजी पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष भी चरम पर था। पार्टी पर दावेदारी के लिए मुलायम सिंह यादव के भाई और बेटे में जंग छिड़ी थी। पार्टी के लिए सियासी जंग में चाचा यानी शिवपाल सिंह यादव को परास्त होना पड़ा और अखिलेश यादव पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। पार्टी पर अखिलेश यादव कब्जा जमा पाने में अखिलेश यादव को कामयाबी जरूर मिली लेकिन सत्ता उनके हाथ से फिसल गई। सत्ता जाने के बाद अखिलेश और शिवपाल सिंह यादव में जुबानी जंग तेज हुई और उसका असर यह हुआ कि 2019 के आम चुनाव से पहले शिपवाल सिंह यादव अलग दल के साथ चुनावी मैदान में उतरे और उसका असर यह हुआ कि उन्हें तो फायदा नहीं मिला लेकिन समाजवादी पार्टी को बड़ा नुकसान हुआ। समाजवादी पार्टी अपनी पारंपरित सीट फिरोजाबाद को नहीं बचा सकी।
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2022 में आए साथ लेकिन..
2017 और 2019 के नतीजों के बाद समाजवादी पार्टी के समर्थक कहीं न कहीं चाहते थे कि चाचा और भतीजे का मिलन हो जाए। करीब तीन साल की कोशिश के बाद दोनों एक दूसरे के साथ आए। जानकारों का कहना है कि जाहिर सी बात थी कि शिवपाल यादव खुद अपनी पार्टी को आगे बढ़ा पाने में नाकाम ही रहते लेकिन समाजवादी पार्टी को फायदा मिलता। अखिलेश यादव को लगा कि 2022 का चुनाव करो या मरो का है लिहाजा रणनीतिक तौर पर किसी तरह की भूल नहीं होनी चाहिए और तमाम कटू अनुभवों के बाद वो शिवपाल सिंह यादव का अपने खेमे में लाए। 2022 के नतीजों में सपा जादुई आंकड़ों से दूर रही लेकिन 2017 के चुनाव में यादवलैंड यानी मैनपुरी, एटा,इटावा, फिरोजाबाद में बड़े नुकसान से बच गई यानी कि समाजवादी पार्टी को फायदा हुआ। लेकिन बात जब समाजवादी पार्टी विधायक दल की बैठक में शिवपाल सिंह यादव के शामिल होने की आई तो वो किनारा कस लिए।