- शुभेंदु नंदीग्राम सीट से मुख्यमंत्री ममता को हराकर 'बड़ा उलटफेर करने वाले' के रूप में उभरे हैं
- पहली बार 1995 में चुनाव राजनीति में उतरे जब उन्हें कांठी नगरपालिका में पार्षद चुना गया
- शुभेंदु ने पहली बार 1995 में चुनाव राजनीति में उतरे जब उन्हें कांठी नगरपालिका में पार्षद चुना गया
कोलकाता: भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव में नंदीग्राम सीट से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हराकर 'बड़ा उलटफेर करने वाले' के रूप में उभरे हैं, हालांकि उनकी पार्टी को चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है।अधिकारी ने मतगणना के अंतिम दौर तक चली खींचतान के बाद बनर्जी को 1,900 से अधिक मतों के अंतर से हार का स्वाद चखा दिया।
तृणमूल कांग्रेस छोड़ भाजपा में आए अधिकारी की जीत को भगवा पार्टी के लिये केवल मनोबल बढ़ाने वाली जीत के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि बनर्जी के नेतृत्व में टीएमसी ने 292 सीटों पर हुए चुनाव में से 213 पर विजय प्राप्त की है।
मतगणना के दौरान अनियमितता बरते जाने की जानकारी मिलने के बाद दोबारा मतगणना की मांग करने वाली बनर्जी ने अब कहा है कि वह परिणाम को लेकर अदालत का रुख करेंगी। फिलहाल अधिकारी भाजपा के हलकों में चर्चा का विषय बने हुए हैं।
अधिकारी के लिये नंदीग्राम उस समय महज राजनीतिक अखाड़े से अस्तित्व की जंग के मैदान में बदल गया था जब बनर्जी ने अधिकारी और उनके परिवार को मजा चखाने की चुनौती दे डाली थी, जिनका दशकों से इस क्षेत्र पर दबदबा रहा है।
पूर्वी मेदिनीपुर जिले का नंदीग्राम इलाका 2007 में रसायन हब के लिये जमीन के बलपूर्वक अधिग्रहण के खिलाफ टीएमसी के नेतृत्व में हुए किसानों के आंदोलन का गवाह रहा है। बनर्जी ने जब भवानीपुर सीट के बजाय इस बार नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला किया तो सबकी निगाहें इस सीट पर टिक गईं।
भाजपा ने अधिकारी का गढ़ बचाने और 'दीदी' को घेरने के लिये केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सुपरस्टार मिथुन चक्रवर्ती को प्रचार मैदान में उतारा।अधिकारी ने खुद को नयी पार्टी की विचारधारा और भविष्य की भूमिकाओं में खुद को ढालने के लिये अपनी छवि को भूमि अधिग्रहण आंदोलन के समावेशी नेता से हिंदुत्व ब्रिगेड के सिरमौर के रूप में स्थापित करने की कोशिश की और दावा किया कि यदि टीएमसी चुनाव जीती तो नंदीग्राम ''मिनी पाकिस्तान'' बन जाएगा।
अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में आरएसएस की शाखाओं में प्रशिक्षण पाने वाले अधिकारी ने 1980 में कांग्रेस की छात्र इकाई छात्र परिषद के सदस्य के तौर पर राजनीति में कदम रखा था। हालांकि वह पहली बार 1995 में चुनाव राजनीति में उतरे जब उन्हें कांठी नगरपालिका में पार्षद चुना गया।
साल 1999 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना के बाद अधिकारी और उनके पिता शिशिर अधिकारी उसमें शामिल हो गए। इसके बाद उन्होंने 2001 में विधानसभा चुनाव और 2004 में विधानसभा चुनाव लड़े। दोनों में हार का सामना करना पड़ा। 2006 में कांठी से जीतकर वह पहली बार विधानसभा पहुंचे।
साल 2007 में नंदीग्राम में टीएमसी के आंदोलन के दौरान वह बड़े नेता बनकर उभरे और जल्द ही उन्हें टीएमसी के कोर समूह का सदस्य और टीएमसी की युवा इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उन्होंने 2009 और 2014 में तामलुक लोकसभा सीट से जीत हासिल की।
हालांकि, टीएमसी से उनकी अदावत के बीज 2011 में पड़ चुके थे, जब ममता बनर्जी ने टीएमसी के यूथ कांग्रेस के समानांतर ऑल इंडिया यूथ कांग्रेस का गठन कर ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी को इसका अध्यक्ष बना दिया गया। इसके बाद धीरे-धीरे पार्टी में अधिकारी हाशिये पर जाते रहे और नतीजा यह हुआ कि विधानसभा चुनाव से ऐन पहले उन्होंने और उनके परिवार ने टीएमसी का साथ छोड़ भाजपा से हाथ मिला लिया।