- चाय स्वामी विवेकानंद की थी सबसे बड़ी कमजोरी
- उन्हें खाना पकाने और खाने का था बहुत शौक, मिठाईयां भी वो खुद बनाकर खाते थे
- युवावस्था में एक फूड क्लब चलाते थे स्वामी विवेकानंद
नई दिल्ली: भारत के पारंपरिक ज्ञान, धर्म और आध्यात्म का आधुनिक दुनिया के सामने परचम लहराने वाले स्वामी विवेकानंद का 4 जुलाई 1902 को पश्चिम बंगाल के बेलूर मठ में ध्यान-मुद्रा में निधन हो गया था। उनकी जीवन लीला जब समाप्त हुई तब उनकी उम्र महज 39 वर्ष थी। 1893 में यदि अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म संसद का आयोजन नहीं होता तो शायद इस युवा योगी और उसके ज्ञान से दुनिया रूबरू हो पाती। साथ ही विश्व मानचित्र पर भारतीय योग प्रथाओं और संस्कृति को पश्चिम के देशों में जो सम्मान हसिल है वो शायद ही हासिल हो पाता।
भले ही भारतीय संस्कृति को दुनियाभर में लोकप्रिय बनाने का श्रेय केवल और केवल स्वामी विवेकानंद को नहीं दिया जा सकता लेकिन भारतीय संस्कृति को जो सम्मान और कद आज पूरी दुनिया में है उसके पहले अध्याय की रचना करने वालों में विवेकानंद का नाम निश्चित तौर पर शामिल किया जा सकता है। वो तब से लेकर आज तक युवाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं। आइए उनकी पुण्यतिथि पर उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं पर रोशनी डालते हैं।
उन्हें खाने का था बहुत शौक
पूरी दुनिया आज स्वामी विवेकानंद और उनके द्वारा दी गई शिक्षा को याद करती है। लेकिन बहुत कम लोग ही इस बात से वाकिफ हैं कि स्वामी विवेकानंद को खाना खाना और पकाना बहुत पसंद था। वो चाय पीने के भी बड़े शौकीन थे। जाने-माने बंगाली उपन्यासकार शंकर ने साल 2003 में विवेकानंद के जीवन पर बंगाली में किताब 'अचेना अजाना विवेकानंद'(Achena Ajana Vivekananda)में उनके जीवन के अनछुए पहलुओं का जिक्र किया है। पेंगविन इंडिया ने इस किताब को अंग्रेजी में 'द मोंक एज मैन' शीर्षक के साथ अंग्रेजी में प्रकाशित किया था। इस किताब को शंकर ने स्वामी विवेकानंद के जीवन के बारे में लिखी तकरीबन 200 किताबों और विवेकानंद द्वारा अपने सहयोगियों को लिखी सैकड़ों चिट्ठियों को पढ़ने के बाद लिखी है जिसमें उन्होंने खाने के प्रति उनके पैशन के बारे में रोशनी डाली है।
शाकाहारी नहीं थे स्वामी विवेकानंद
सबसे रोचक बात यह है कि स्वामी विवेकानंद शाकाहारी नहीं थे और वो मछली और मटन खाते थे। वो मूल रूप से बंगाली कायस्थ परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनका परिवार मांसाहारी था। इसलिए ये कतई चौंकाने वाली बात नहीं है। यहां तक कि रामकृष्ण मिशन जहां शाकाहारी खाना परोसा जाता है वहां ऐसा किए जाने की परंपरा बाध्य नहीं है। किस तरह का खाना परोसा जाए यह निर्णय अलग अलग केंद्रों पर छोड़ा गया है कि वो वहां रहने वाले संतों और अनुयायियों के आधार पर इसका निर्णय करें।
स्वामी विवेकानंद के ने अपने लेख में इस बारे में लिखा भी है। उन्होंने लिखा, शाकाहारी खाने के बारे में मैं यह कहूंगा-पहला, मेरे मालिक(गुरू) शाकाहारी थे, लेकिन यदि उन्हें देवी को चढ़ाया गया मीट दिया जाता तो वो उसे अपने सिर से लगाते थे। किसी की जान लेना निश्चित तौर पर पाप है। लेकिन रसायन शास्त्र के हिसाब से लंबे समय तक मानव शरीर के लिए अच्छ नहीं है तो मांस खाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।'
अपने इसी बयान में उन्होंने आगे कहा, लेकिन जिन लोगों को दिन-रात मजदूरी करके अपने लिए रोटी कमानी पड़ती है, उन पर शाकाहार का दबाव राष्ट्रीय स्वतंत्रता को खोने का एक कारण है। जापान इस बात का उदाहरण है कि अच्छा और पौष्टिक भोजन क्या कर सकता है।'
युवावस्था में एक फूड क्लब चलाते थे स्वामी विवेकानंद
अपनी किताब में शंकर ने इस बात का जिक्र किया है कि विवेकानंद युवावस्था में एक 'ग्रीडी क्लब' चलाते थे और यहां खाना पकाने के बारे में गहन शोध करते थे। वो फ्रेंच पकवान की कुकिंग की किताबें लाए थे और उन्होंने कई नए पकवानों की खोज की थी। जिसमें से एक डिश खिचड़ी की थी जिसमें उन्होंने अंडे, मटर और आलू का उपयोग किया था।
शंकर की एक अन्य किताब 'अहारे-अहारे बिबेकानंदा' में उन्होंने जिक्र किया है कि चाय स्वामी विवेकानंद की कमजोरी थी। बचपन में उन्हें घर के करीब बिकने वाली कचौड़ी सब्जी खाना पसंद था। उन्हें आईसक्रीम खाने का शौक था। इस बारे में उनके अनुयायियों ने भी जिक्र किया कि रात के खाने के बाद वो आइसक्रीम खाने के लिए लंबा इंतजार करते थे। उनके एक शिष्य के मुताबिक, स्वामी अशोकानंद और विवेकानंद पुलाव के अलावा घी और शक्कर से कई तरह की मिठाईयां बनाते थे। उन्हें तले हुए आलू खाना बहुत पसंद था वो उसे मक्खन और मसालों के साथ पकाते थे।
विदेश यात्रा के दौरान करते थे ऐसा
स्वामी विवेकानंद जब विदेश जाते थे तो उनके अंदर अलग-अलग तरह की चाय पीने की आदत पैदा हो गई थी। वो विदेशी धरती पर रहने वाले लोगों के खान पान की आदत पर करीब से नजर रखते थे और अपने मेजबान के लिए खाना पकाते हुए वो उसमें भारतीय मसालों और चीजों का इस्तेमाल करते थे। विदेश यात्रा के दौरान उन्होंने अपने भारतीय व्यंजनों का विकल्प भी ढूंढ लिया था जैसे कि हिल्सा मछल जो कि बंगाल में बड़े पैमाने पर खाई जाती है। उन्होंने अमेरिका के पूर्वी तट पर इसके विकल्प की खोज कर ली थी। उन्होंने इसके बारे में जिक्र कोलकाता में रहने वाले अपने गुरुभाईयों को अमेरिका से लिखे पत्र में किया था।