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कभी चरवाहा विद्यालय के लिए भी जाना गया बिहार, विदेशों से पहुंचे थे लोग इसे देखने    

श्वेता सिंह | सीनियर असिस्टेंट प्रोड्यूसर
Updated Sep 25, 2020 | 10:37 IST

Charwaha Vidyalaya in Bihar: राष्ट्रीय जनता दल का एक ऐसा प्रयोग जिसने क्षणिक भर के लिए ही सही देश ही नहीं दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।

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तस्वीर साभार:&nbspPTI
कभी चरवाहा विद्यालय के लिए भी जाना गया बिहार।

एक ऐसा स्कूल जिसके बाहर गाय, भैंस और बकरी चरते हुए मिलेंगे तो अंदर उनके चरवाहे बच्चे शिक्षा अर्जित करते हुए। अपने आप में इस तरह का प्रयोग सच में अनोखा था। दलितों, समाज से उपेक्षित और गरीबों के बच्चे को शिक्षा दिलाने का बेहतरीन तरीका चरवाहा विद्यालय था। लालू प्रसाद अपने कार्यकाल में इस प्रयोग को आधार दिए और उनके इस आधार को दुनियाभर ने सराहा। आमतौर पर इस तरह के बच्चों का भविष्य गाय, भैंस के पीछे ही निकल जाता है। छोटे से बड़े होने और फिर बूढ़े होने तक वो गाय, भैंस ही चराते रह जाते हैं, लेकिन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस ओर अपना ध्यान और समय दोनों दिया।  

कहां था ये चरवाहा स्कूल  
मुज्जफरपुर के तुर्की में 25 एकड़ में बिहार का नहीं बल्कि देश का पहला चरवाहा विद्यालय खुला। औपचारिक रूप से इसका उद्घाटन 15 जनवरी 1992 में किया गया। जब ये स्कूल खोला गया तो इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। सबसे पहले इस स्कूल में 15 लोगों की टीम तैनात की गई। शिक्षक से लेकर इंस्ट्रक्टर तक की तैनाती की गई।  

 विदेशों से इसे देखने पहुंचे लोग   
चरवाहा विद्यालय सिर्फ देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक नया प्रारूप था। इस तरह का पहले किसी ने कुछ सोचा भी नहीं था, आधार देना तो दूर की बात थी। तुर्की में खुले इस विद्यालय को देखने के लिए विदेशों से लोगों की भीड़ पहुंचने लगी। अमेरिका और जापान से कई टीमें इस स्कूल का दौरा की और इसे समझने के साथ साथ इसकी सराहना की।  

स्कूल में थी ख्यास व्यवस्था  
इस स्कूल में वो बच्चे पढ़ते थे, जो घर से गरीब होने के साथ ही गाय, भैंस चराते थे और शिक्षा की तरफ उनकी रूचि बिल्कुल नहीं थी। ऐसे बच्चों को स्कूल में पढ़ाने के साथ ही उन्हें दोपहर के भोजन के साथ-साथ स्कूल यूनिफार्म, स्कूल बैग और किताबें दी गईं ताकि वो बिना किसी मुश्किल के शिक्षा अर्जित कर सकें।   

अब केवल गाय, भैंस और बकरी जाते हैं  
बिहार राज्य सरकार की तरफ से इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। आगे चलकर कुछ ही सालों में सबसे पहले यहां शिक्षक आना बंद हुए फिर बच्चे। अब तो इस चरवाहा विद्यालय का सिर्फ ढांचा ही बचा है। लालू के इस प्रयोग को खुद इनकी सरकार ने भी ध्यान नहीं दिया और बहुत जल्द ही गरीब और दलित बच्चों का भविष्य तय करने वाला ये स्कूल, उनके भविष्य को हमेशा की तरह यूंही अंधेरे में छोड़ गया। 

बिहार में बना ये चरवाहा विद्यालय क्षणिक समय के लिए ही सही, लेकिन बिहार को अलग तरह से दुनिया के सामने प्रदर्शित लार गया। लोग बिहार को चरवाहा विद्यालय के नाम से जानने लगे। लोगों के मुंह से निकालता था कि चरवाहा विद्यालय वाले बिहार में जाना है। लेकिन ये सुविधा बहुत दिनों तक ठीक तरह से नहीं चल पायी।  

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