नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने शुक्रवार को बड़ा ऐलान करते हुए राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदलकर मेजर ध्यानचंद के नाम पर रखने का फैसला किया, जिन्हें पूरी दुनिया 'हॉकी के जादूगर' के नाम से भी जानती है। मेजर ध्यानचंद पीढ़ियों से भारतीय खिलाड़ियों को प्रेरित करते आ रहे हैं और खेल जगत में एक आदर्श के तौर पर स्थापित हैं। 22 साल के लंबे करियर में 400 से अधिक गोल करने वाले मेजर ध्यानचंद भारतीय आज भी करोड़ों भारतीयों को प्रेरित करते हैं।
हॉकी के क्षेत्र में मेजर ध्यानचंद की उपलब्धियों का सफर भारतीय खेल जगत को आज भी गौरवान्वित करता है। उन्होंने लगातार तीन ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम को हॉकी में स्वर्ण पदक दिलाया। यह वह दौर था, जब भारत एक स्वतंत्र मुल्क नहीं था, बल्कि ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा था। 1928 के एम्सटर्डम, 1932 के लॉस एंजेलिस और 1936 के बर्लिन ओलंपिक में ब्रिटिश भारत को हॉकी में मिला गोल्ड मेडल आज भी मिसाल है, जिसका श्रेय मेजर ध्यानचंद को ही जाता है।
हिटलर भी था कायल
हॉकी में उनका जादू कुछ इस कदर चला कि वह पूरी दुनिया में हॉकी के जादूगर के नाम से मशहूर हो गए। भारतीय हॉकी को शिखर तक ले जाने में उन्होंने जिस जीवट का परिचय दिया, उसने हर किसी को उनका कायल बना दिया। यहां तक कि जर्मन तानाशाह हिटलर भी उनके मुरीदों में था। कहा जाता है कि हिटलर ध्यानचंद के 'जादू' से इस कदर प्रभावित था कि उसने उन्हें जर्मन सेना में कर्नल की रैंक के साथ जर्मनी की नागरिकता की पेशकश भी की थी, लेकिन ध्यानचंद ने यह कहते हुए जर्मन तानाशाह का ऑफर नकार दिया था, 'हिंदुस्तान मेरा वतन है और मैं वहां खुश हूं।'
हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था, लेकिन बाद में उनका परिवार झांसी में बस गया। उनके पिता समेश्वर दत्त ने भी हॉकी खेला था, जब वह ब्रिटिश आर्मी से जुड़े थे। ध्यानचंद के छोटे भाई रूप सिंह भी हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक थे। वह ओलंपिक में दो बार गोल्ड जीतने वाली टीम में शामिल रहे। ध्यानचंद की बात करें तो उन्होंने पहली बार हॉकी तब खेला था, जब वह 1921 में भारतीय सेना में शामिल हुए थे। तब उनकी उम्र महज 16 साल थी।
इसलिए नाम में लगा चंद
यह भी दिलचस्प है कि हॉकी के जादूगर के नाम से मशहूर हुए ध्यानचंद की रुचि किशोरावस्था में कभी कुश्ती को लेकर थी। उनके नाम में चंद लगने के पीछे की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। उनका नाम शुरुआत में ध्यान सिंह था, लेकिन वह चांदनी रात में जमकर प्रैक्टिस किया करते थे, जिसके कारण दोस्तों ने उनके नाम में चंद जोड़ दिया। खेल के मैदान में जब ध्यानचंद हॉकी स्टिक के साथ उतरते थे तो गोल को लेकर जी-जान लगा देते थे।
कहा जाता है कि जब वह खेलते थे तो गेंद मानो उनके स्टिक से चिपक जाती थी और हॉलैंड में एक मैच के दौरान उनके स्टिक में चुंबक होने की आशंका के मद्देनजर उसे तोड़कर भी देखा गया था। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का 3 दिसंबर, 1979 को दिल्ली में निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार झांसी में उसी मैदान पर किया गया, जहां वह शुरुआत में हॉकी खेला करते थे।