नई दिल्ली। अन्ना हजारे किसी पहचान के मोहताज नहीं। 15 जून 1937 को महाराष्ट्र के रालेगण सिद्दी में एक बालक इस दुनिया में कुछ अलग करने के लिए पैदा होता है। इस बात के पीछे दम है। अगर सिर्फ पुरस्कार को ही भारतीय समाज में कामयाब होने का पैमाना माना जाए तो 1990 में पद्मश्री और 1992 में पद्मभूषण का पुरस्कार उनके खाते में गया। अन्ना जब युवावस्था में पहुंचे तो देश की रक्षा के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत ने फौज के दरवाजे खोले और वो सेना में भर्ती हो गए। एक सामान्य से कद काठी वाले उस शख्स ने असामान्य काम कर दिखाया था। लेकिन उसके खाते में तो कुछ और बुलंदिया लिखी थी। 2011 का जन लोकपाल का हिस्सा बनना उनकी शख्सियत की अलग पहचान बनी। हालांकि उसके बाद ही सवाल उठे क्या वो राजनीति के लिए नहीं बने हैं।
अन्ना हजारे, एक आंदोलन
अन्ना हजारे ने सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जिस मुकाम को हासिल किया वो वर्ष 2011 के पहले तक महाराष्ट्र की सीमाओं तक ही बंध कर रह गया था। लेकिन उत्तर भारत में मौजूदा यूपीए-2 सरकार के भ्रष्टाचार के कारानामों में एक शख्स को राजनीतिक बदलाव दिख रहा था और उस शख्स का नाम अरविंद केजरीवाल था। अरविंद केजरीवाल सूचना के अधिकार के तहत सरकारी जानकारी मांग रहे थे क्योंकि उसमें उन्हें खुद के लिए राजनीतिक रास्ता दिखाई दे रहा था। 2010 कॉमनवेल्थ गेम की तैयारियों में जिस तरह से सरकारी धन के बंदरबांट की खबरें आने लगी उस वक्त अरविंद केजरीवाल को खुद के लिए उम्मीद और अधिक नजर आई। अब सवाल था कि क्या कोई ऐसा शख्स है जो उनकी उम्मीदों को पंख लगा सके और वो तलाश अन्ना हजारे पर आकर खत्म हुई।
भ्रष्टाचार के खिलाफ भूख हड़ताल
पांच अप्रैल 2011 को जंतर मंतर पर अन्ना हजारे भूख हड़ताल पर बैठ गए और मांग वही कि भ्रष्टाचारियों को सफाया होना चाहिए। भ्रष्ट नेताओं को सजा मिलनी चाहिए और इसके लिए जनलोकपाल ही सिर्फ हथियार है। करीब चार दिन तक चलने वाले इस भूख हड़ताल से दिल्ली की सत्ता यानी मनमोहन सिंह की सत्ता लड़खड़ाई और विलाशराव देशमुख के जरिए अन्ना के अनशन को तुड़वाया गया। लेकिन जिस तरह से अन्ना हजारे के समर्थन में लोग आने लगे वो अरविंद केजरीवाल के लिए उम्मीद और कांग्रेस के लिए चुनौती थी।
क्या अन्ना हजारे बन गए थे मोहरा
अन्ना हजारे के आंदोलन की समाप्ति पर केंद्र सरकार को लगने लगा कि यह सिर्फ एक तरह का विरोध था। लेकिन वो सिर्फ अंगड़ाई थी आगे की उथलपुथल का देश गवाह बनने वाला था। करीब एक साल के बाद मंच और जगह दोनों बदल गए। अब रामलीला मैदान आंदोलन की गवाह बनी जिसमें कई तरह की लीला हुई। एक सरकार यानी यूपीए-2 के अवसान की शुरुआत हो चुकी थी, एक नया राजनीतिक दल यानी आम आदमी पार्टी जन्म लेने के लिए तैयार थी तो दूसरी तरफ एक शख्स यानी अन्ना हजारे की कानों में ये शब्द गूंजने थे कि उसके साथ धोखा हुआ।
रामलीला मैदान से उठे ज्वार से केंद्र की यूपीए-2 सरकार बैकफुट पर थी जिसका फायदा अरविंद केजरीवाल ने उठाया और ऐलान कर दिया कि अब वो सक्रिय राजनीति के जरिए जनसेवा करेंगे और उसके लिए आम आदमी पार्टी का गठन किया। इस ऐलान के बाद अन्ना हजारे ने कहा कि अरविंद केजरीवाल ने छल किया और वो उन्हें कभी माफ नहीं करेंगे। यही वो पल था जिससे साफ हो गया कि एक शख्स जो सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से समाज की सेवा कर रहा था वो दूसरे शख्स यानी अरविंद केजरीवाल सिर्फ मोहरा बनकर रह गया।
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