पासवान नहीं जनाब ये तो ‘पासऑन’ हैं। जीत का सेहरा दुश्मन पार्टी की ओर से दोस्त पार्टी के सर सजा सकते हैं। विश्वास न हो रहा हो, तो पासवान की राजनीतिक कुंडली देख लीजिए। जब-जब वो पाला बदले हैं, तब-तब जय ही हाथ लगी है. संख्या से इनका कोई मतलब नहीं है। ऐसा लगता है कि जैसे जीत इनकी अनुगामिनी है. इनकी परछाईं बनकर चलती है।
रामविलास पासवान ने राज्य की राजनीती से मुंह मोड़कर केंद्र की राजनीती का आनंद ले रहे हैं। सीनियर पासवान ने जूनियर पासवान के कंधों पर पार्टी का बोझ डाल दिया है। नीतीश और चिराग के बीच अनबन अब पार्टी से बाहर निकलकर झांक रही है, जिसका फायदा दूसरी पार्टी उठा सकती है। आगामी चुनाव में क्या NDA को नई राह दिखाएगा या फिर राज्य की सत्ता पर काबिज होने के सपने को जलाकर खाक कर देगा।
बिहार में NDA की सरकार है, लेकिन आगामी चुनाव में समीकरण बदल सकते हैं। फिलहाल JDU और एलजेपी की तकरार प्रधानमंत्री की दहलीज पर पहुँच गई है। JDU LJP की इस लड़ाई के बीच बीजेपी की हालत तो त्रिशंकु की तरह हो गई है। आखिर बीजेपी किसका साथ देगी? दोनों से ही बीजेपी के गहरे रिश्ते हैं।
वैसे ये पहली बार नहीं है जब लोजपा अपनी सहयोगी पार्टी से विरोध करने के लिए तैयार है। ऐसा कई बार हो चुका है। एक बार तो केंद्र में लालू के साथ कंधे से कंधा मिलकर चलने वाले पासवान ने राज्य के चुनाव में अलग ही समीकरण बना लिया था। उस वक्त लालू ने पासवान को हल्के में लिया था. किसी को उम्मीद भी नहीं थी कि ये पासवान कुछ ऐसा कर दिखाएंगे, जो हुआ नहीं है। पासवान ने लालू के मुंह से सत्ता का लड्डू छीन लिया था। तबके गिरे लालू आजतक संभल नहीं पाए हैं।
बिहार से अकाट्य लालू की सत्ता को रामविलास पासवान ने मुस्लिम सीएम वाले दांव से उखाड़ फेंका था। पासवान के मुस्लिम मुख्यमंत्री के कार्ड के आगे लालू की एक न चली थी। वो धराशायी हो गए थे। सवाल उठता है कि क्या इस बार बिहार राज्य के चुनाव में भी पासवान कुछ ऐसा ही करने की तैयारी में हैं?
छोटी-सी पार्टी और शांत स्वाभाव वाले पासवान राजनीति की ऐसी खिचड़ी बनाते हैं कि वो छप्पन भोग से भी स्वादिष्ट होती है। चुनाव के करीब आते ही न जाने वो कैसे इस खिचड़ी को पकाने में लग जाते हैं कि दूसरों को इसकी भनक तक नहीं लगती। पासवान की इस खिचड़ी में राजनीति के कितने डाव-पेंच मिले होते हैं, इसका आजतक किसी को अंदाजा नहीं है। इतना तो है कि भले ही खिचड़ी की सामग्री का पता नहीं चलता, लेकिन आखिरी समय में इसका स्वाद लेने वाले सामने रखे छप्पन भोग को भी खाने से इनकार कर देते हैं। पासवान के शांत दिमाग में बहुत कुछ चलता रहता है। वो कछुए की भांति अपनी जीत पक्की करते हैं और किले पर अपनी जय पताका लहराते हैं। वैसे राजनीति में असली खेल तो चुनाव के बाद शुरू होता है। राजनीति में आखिरी सांस तक मुहरों की चाल का अंदाजा लगाना मुश्किल है जनाब।
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