पटना: मौजूदा बिहार विधानसभा का कार्यकाल 29 नवंबर को खत्म हो रहा है। चुनावों की तारीखों का ऐलान अभी नहीं हुआ है लेकिन चुनाव आयोग की तरफ से संकेत हैं कि 29 नवंबर से पहले चुनाव संपन्न करा लिया जाएगा। इन सबके बीच बिहार में राजनीतिक समीकरणों में तेजी से बदलाव हो रहा है। एक तरफ हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतनराम मांझी एनडीए का हिस्सा बन चुके हैं तो श्याम रजक अपनी पुरानी पार्टी आरजेडी का रुख कर चुके हैं। लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह है कि एनडीए का हिस्सा होने के बाद चिराग पासवान गठबंधन सरकार खासतौर से सीएम नीतीश कुमार पर निशाना साधने का एक भी मौका नहीं चुकते।
नीतीश पर 'चिराग' हमला
चिराग पासवान नीतीश कुमार पर हमला करने के क्रम में वो बीजेपी को बख्शते नजर आते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर चिराग पासवान, नीतीश कुमार से इतने खफा क्यों है। क्या उन्हें ऐसा लग रहा है कि जीतनराम मांझी का एनडीए का हिस्सा होना राजनीतिक तौर पर उनके लिए हानिकारक होगा। क्या चिराग पासवान यह सोचते हैं कि बिहार की सियासत में पार्टी को मजबूत या उसे प्रासंगिक बनाए रखने के लिए 2005 के फॉर्मूला पर काम करना चाहिए। इस बारे में जानकारों की राय अलग अलग है।
नीतीश की सरपरस्ती या अलग रास्ता, चिराग के सामने दो विकल्प
सवाल यह है कि नीतीश कुमार पर चिराग पासवान निशाना क्यों साधते रहते हैं। क्या उनकी निजी खुन्नस है या उन्हें लगता है कि नीतीश की छाया में वो कभी पनप नहीं पाएंगे। इस सवाल के जवाब में जानकार कहते हैं कि राजनीतिक लड़ाई में निजी हितों का कोई अर्थ नहीं है। चिराग पासवाव युवा है और वो समझते हैं कि बिहार की सियासत में कभी न कभी तेजस्वी बनाम उनकी लड़ाई होगी और उसके लिए वो जमीन और पुख्ता करना चाहते हैं। लेरिन सियासत की राह इतनी आसान नहीं होती है, उसमें तमाम गड्ढे होते हैं जिससे बच कर निकलना होता है। नीतीश कुमार को लगता है कि चिराग संभावित प्रतिद्वंदी हो सकते हैं लिहाजा उन्हें अधिक स्पेस नहीं मिलनी चाहिए। लिहाजा नाक के बाल और धुरविरोधी बन चुके जीतनराम मांझी को एनडीए का हिस्सा बनाने में नीतीश कुमार ने संकोच नहीं किया।
केंद्र में एनडीए का हिस्सा और बिहार में अलग राह
अब इस तरह के हालात में चिराग पासवान के पास दो विकल्प हैं। पहला कि वो एनडीएन यानी नीतीश कुमार की अगुवाई में आगे का रास्ता तय करें या वो उनसे अलग रह कर अपने नए सफर की शुरुआत करें। इसके लिए उन्हें 2005 का समीकरण याद आता है जब उनके पिता रामविलास पासवान वाजपेयी सरकार में बने रहे लेकिन बिहार की राजनीति में अलग रास्ता चुना। इस तरह की तस्वीर बीजेपी के लिए नुकसान वाली भी नहीं है क्योंकि दलित समाज के वोटों में जितना बिखराव होगा उसका फायदा उसे हासिल होगा।
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