पटना। सियासत में दुश्मनी या दोस्ती दोनों भाव स्थाई नहीं होते हैं। सियासी जरूरत राजनेताओं को एक दूसरे के करीब लाती है या एक दूसरे को दूर करती है। किसी ने सोचा नहीं रहा होगी कि महादलित समाज से आने वाले जीतनराम मांझी के हाथों में बिहार की कमान कभी होगी। लेकिन वो हकीकत बना। इसके साथ ही किसी ने यह भी नहीं सोचा रहा होगा कि जीतनराम मांझी, नीतीश कुमार के खिलाफ बगावती सुर बुलंद करेंगे लेकिन वो भी हुआ। किसी ने यह भी नहीं सोचा होगा कि जीतनराम मांझी एक बार नीतीश कुमार की नांव पर सवार होंगे, लेकिन यह तस्वीर सामने आ चुकी है। सवाल यह है कि जीतनराम मांझी के इस फैसले से किसे कितना फायदा होगा। फायदा किसे होगा इससे पहले यह समझना जरूरी है कि आरजेडी को कितना नुकसान हो सकता है।
मांझी के फैसले से महागठबंधन को नुकसान !
दरअसल महागठबंधन में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी है। आरजेडी का परंपरागत मुस्लिम यादव समीकरण को जीतनराम मांझी का चेहरा मजबूती दे रहा था। लेकिन अब उनके अलग होने से निश्चित तौर पर दलित महादलित समाज के 16 फीसद वोटों एक बड़े हिस्से से तेजस्वी यादव का हाथ धोना पड़ सकता है। अगर इस लिहाज से देखें तो आरजेडी को नुकसान है।
बिहार में महादलित समाज के वोटर करीब 5.5 फीसद
जीतन राम मांझी मुसहर समाज से आते हैं और इस समाज का वोट में हिस्सेदारी करीब 5.5 फीसदी है। रामविलास पासवान इस वक्त पहले से ही एनडीए में हैं इसके साथ ही मांझी के अलग रास्ता चुनने से महागठबंधन को करीब 5.5 फीसदी और वोटों का सीधा सीधा नुकसान होता दिख रहा है। इसके अलावा महादलित कैटेगरी से आने वाले मांझी के चेहरे पर मिलने वाला वोट भी महागठबंधन से छिटक सकता है।
2015 में 38 में से 15 सीटों पर आरजेडी की हुई थी जीत
अनुसूचित जाति के लिए बिहार विधानसभा में कुल 38 सीटें आरक्षित हैं। 2015 में राजद को सबसे ज्यादा 14 अनुसूचित जाति की सीट पर जीत हासिल हुई थी। जेडीयू को 10, कांग्रेस को 5, बीजेपी को 5 और बाकी चार सीटें अन्य को मिली थी। इसमें 13 सीटें रविदास समुदाय के नेता जीते थे जबकि 11 पर पासवान समुदाय से आने वाले नेताओं ने कब्जा जमाया था। मांझी और पासवान दोनों नेताओं के एनडीए खेमे में होने से महागठबंधन को इसका सीधा सीधा नुकसान होता दिख सकता है
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